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षष्ठ सर्ग में छहों ऋतुओं का सुन्दर वर्णन है। यहाँ सुमङ्गला को विभिन्न ऋतुओं का अनुसरण करते हुए चित्रित किया गया है
घनागमप्रीणितसत्कदम्बा सारस्वतं सा रसमुद्गिरन्ती ।
रजोव्रजं मंजुलतोपनीत छायाप्रती प्रावृषमन्वकार्षीत् ॥ ६ ॥ ४०
घने आगमों से जिसने सज्जनों के समूह को प्रसन्न किया है, जो सरस्वती सम्बन्धी रस को प्रकट कर रही है, जो पाप के समूह को क्षय कर रही है तथा सौन्दर्य के द्वारा जिसकी कान्ति समीपवर्तिनी है, ऐसी सुमङ्गला ने वर्षा ऋतु का अनुसरण किया ।
वर्षा ऋतु भी मेघों के आने पर कदम्बों को प्रसन्न करती है, सरस्वती नदी के जल को प्रकट करती है, धूलि के समूह का क्षय करती है तथा सुन्दर-सुन्दर लताओं से कान्ति को लाती है । सुमङ्गला ने शीत ऋतु का आश्रय कैसे लिया
सत्वावकार्चिः प्रणिधानदत्ता-दराकलाकेलिबलं दधाना ।
श्रियं विशालक्षणदा हिमतः शिश्राय सत्यागत शीतलास्या ।। ६ । ४२
प्रधान एवं पवित्र करने वाले परब्रह्म रूप में जिसका ध्यान है, कलाओं में क्रीड़ा के बल को जो धारण करती है, विशाल क्षण को जो देती है, जिसमें तकार का त्याग है ऐसे शीतल अर्थात् शील में जिसका निवेश है, ऐसी सुमङ्गला ने हिम ऋतु की शोभा का आश्रय लिया।
हिम ऋतु भी प्रधान अग्नि की अर्चियों के ध्यान में आदर रखने वाली, कन्दर्प के बल को धारण करने वाली, विशाल रात्रि से युक्त तथा सत्य से आगत शीत रूप नृत्य वाली होती है । सुमङ्गला द्वारा स्वप्न में देखे हुए समुद्र का वर्णन करते हुए कवि कहता है
क्वचिद्वायुवशोद्धूत वीचीनीचीकृताचलम् । उद्वृत्तपृष्ठैः पाठीनैः, कृतद्वीपभ्रमं क्वचित् ॥ पीयमानोदकं क्वापि सतृषैरिववारिदैः । रत्नाकरं कुरङ्गाक्षी वीक्षमाणा विसिष्मये ।। ७ । ४४-४५
कहीं पर वायु के वश उछलती हुई तरङ्गों से जिसने पर्वतों को नीचा कर दिया है, कहीं पर जिसने पृष्ठ विभागों को उखाड़ दिया है, ऐसी मछलियों के द्वारा द्वीप का भ्रम कर दिया है, कहीं पर मानों प्यासे मेघों से जिसका जल दिया जा रहा है, ऐसे समुद्र को देखती हुई मृगनयनी आश्चर्यान्वित हुई। प्रथम सर्ग में कौशला नगरी का कवि ने काव्यमय मनोहारी वर्णन किया है। कौशला नगरी का प्राकारें कर्णाभरण की लीला को धारण करता है
चन्द्राश्मचञ्चत्कपिशीर्षशाली सुवर्णशालः श्रवणोचितश्रीः ।
यत्राभितो मौक्तिकदत्तवेष्ट ताटङ्कलीलामवहत् पृथिव्याः ॥ १ । ३
जिस नगरी (कौशला ) में चन्द्रकान्त मणि से सुशोभित होने वाले कंगूरों से शोभायमान सुवर्ण का प्राकार चारों ओर पृथिवी के मोतियों से वेष्टित कर्णाभरण की लीला को धारण करता था । कौशलापुरी में वर्षा के बिना भी मेघ का आनन्द लीजिए
नदद्भिरर्हद भवनेषु नाट्य क्षणे गभीरध्वनिभिः मृदङ्गै । यत्राफलत्केलिकलापिपत्तेर्विनाऽपि वर्षांघन गर्जिताशा ।। १ । ४
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