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आवश्यकतानुसार इसमें श्रृंगार का भी समावेश है। इसकी कथा से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप विभिन्न प्रयोजनों की सिद्धि होती है। मोक्षगामी भगवान् ऋषभ और भरत के गुणगान से सिद्ध है कि कथा का प्रमुख उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति की ओर उन्मुख होता है। कथा के नायक प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव हैं। इनमें नायक के सभी गुण विद्यमान हैं। इनका वृत्त लोकप्रिय है। जैनकुमारसम्भव महाकाव्य में ग्यारह सर्ग हैं । सर्ग लम्बे-लम्बे हैं । सर्ग के पद्यों की संख्या अड़सठ से लेकर पचासी तक है। प्रत्येक सर्ग में एक छन्द है । किन्तु सर्ग के अन्त में भिन्न छन्द का प्रयोग किया गया है। रात्रि वर्णन के प्रसङ्ग में कवि कहता है
कुमुद्वती चाकृत रोहिणीं च प्रिये निशांवीक्ष्य शितिं सितांशुः । श्रियं च तेजश्चतयोर्ददाना साधत्त साधु क्षणदेति नाम ॥ ६ ॥
चन्द्रमा ने काली रात्रि देखकर कुमुदिनी और रोहिणी को अपनी प्रिया बना लिया। रात्रि ने कुमुदिनी और रोहिणी की शोभा को और अधिक तेज प्रदान करते हुए क्षणदा यह नाम ठीक ही धारण कर लिया ।
रात्रि काली क्यों हुई? इसके विषय में कवि कल्पना करता है
हरिद्रयेयं यदभिन्ननामा बभूव गौर्येव निशाततः प्राक् । सन्तापयन्ती तु सतीरनाथास्तच्छापदग्धाजनि कालकाया ॥ ६ ॥७
चूँकि यह रात्रि हरिद्रा के साथ अभिन्न नाम वाली है, अतः पहले गौरवर्ण वाली हुई, यह जाना जाता है । पुन: अनाथ सतियों को सन्तापित करती हुई उनके शाप से जलकर काले शरीर वाली हो गई । सूर्य की हजार किरणें क्यों होती हैं? इसके विषय में कवि हेतु उपस्थित करता है
तमिस्रबाधांबुजबोधधिष्णमोषांबुशोषाध्वविशोधनाद्याः ।
अर्थक्रियाभूरितरा अवेक्ष्य बेधा व्यधादस्य करान् सहस्रम् ॥ ११ ॥ २
अन्धकार की पीड़ा, कमलों का विकास, नक्षत्रों का लोप, जल का सूखना, मार्गशोधन आदि प्रचुर पदार्थों की क्रियाओं को देखकर ब्रह्मा ने इस सूर्य की हजार किरणें बना दीं।
दिन में कुमुदिनी संकुचित क्यों हो जाती है ? इसका काव्यात्मक हेतु उपस्थित है
इन्दोः सुधा श्राविकरोत्सवज्ञा विज्ञातभाव्यर्क करोपतापा । व्याजान्निशाजागर गौरवस्य शिश्ये सुखं कैरविणी सरस्सु ॥ ११ । ६
चन्द्रमा की अमृत बर्षाने वाली किरणों के उत्सव को जानने वाली तथा आगामी सूर्य की किरणों के ताप को जानने वाली कुमुदिनी रात्रि में जागरण के गौरव के बहाने से सरोवरों में सुखपूर्वक सोयी ।
यश भाग्यवश प्राप्त होता है, इसके विषय में एक रमणीय कल्पना है
गते खौ संववृधेऽन्धकारो गतेऽन्धकारे च रविर्दिदीपे ।
तथापि भानुः प्रथितस्तमोभिदहो यशो भाग्यवशोपलभ्यम् ॥ ११ ॥ ११
सूर्य के चले जाने पर अन्धकार वृद्धि को प्राप्त हुआ और अन्धकार के चले जाने पर सूर्य देदीप्यमान हुआ, फिर भी सूर्य अन्धकार का भेदन करने वाले के रूप में प्रसिद्ध हुआ । आश्चर्य है, यश भाग्यवश प्राप्य होता है ।
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