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जिस कौशला नगरी में नाट्य के अवसर पर अर्हन्त भगवान् के भी भवनों में गम्भीर ध्वनि वाले मृदङ्गों के कारण क्रीड़ामयूरों की पंक्ति की वर्षा के बिना भी मेघ के गर्जन की आशा फलीभूत हुई।
तृतीय सर्ग से पंचम सर्ग में विवाह के समय सम्पन्न होने वाले रीति-रिवाजों आदि का सुन्दर वर्णन हुआ है । एकादश सर्ग में सुमङ्गला के आगामी समय में होने वाले पुत्र के अभ्युदय का वर्णन है। चतुर्थ सर्ग में वरयात्रा का सुन्दर वर्णन हुआ है। इस प्रकार जैनकुमारसम्भव महाकाव्य में महाकाव्य के सभी गुण विद्यमान हैं।
- जैनकुमारसम्भव महाकाव्य की भाषा और शैली
श्री जयशेखर सूरि की काव्यशैली वैदर्भी है, किन्तु वह कालिदास के समान प्रसाद गुणमयी नहीं है, इसकी कल्पनायें पाण्डित्यपूर्ण हैं। कहीं कहीं लम्बे-लम्बे समासों के कारण उनकी शैली गौडी के समीप पहुँच गई है । जैसे
धर्मधामगुणगीर्णवाक्शरा - सारमारभतमारभङ्गिवत्॥ १०। ५८ सन्दर्शितस्वस्तिकवास्तुमुक्तारदावलिः स्फाटिकभित्तिभाभिः॥३।४४
आमोक्षसौख्यांहति संधयास्मिनात्मातिरेकेऽभ्युदिते पृथिव्याम्॥१।६८ सप्तम सर्ग अन्य सर्गों की अपेक्षा सरल है। इसमें कालिदास के समान प्रासादिकता है। सामान्यतया श्री जयशेखर सूरि की शैली दुरूह है। अपने आपको विद्वान् समझने वाला कोई अव्युत्पन्न इसके साथ खिलवाड़ नहीं कर सकता है। जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक और निष्ठा के साथ इसकी गहराईयों में पैठता है, वही इसकी काव्यरस की लहरों में डूबने के सुख को प्राप्त करता है । इसके रस में अवगाहन के लिए परिपक्व बुद्धि होना आवश्यक है। प्रौढ़ पण्डितों के हृदय को यह रञ्जित करता है।
श्री जयशेखर सूरि के काव्य में शब्दालङ्कार एवं अर्थालङ्कार दोनों ही प्रकार के अलङ्कारों का प्रचुर प्रयोग है। पदलालित्य में यह श्री हर्ष के नैषधीय चरितम् की याद दिला देता है। अनुप्रास की एक छटा देखिए
जुडाजडिम्ना जड भक्ष्यभोजिनादनावृत्तस्थानशयेन जन्तुना। विलोक्यते यो विकलप्रचारवद्-विचारणं स्वप्नभरोनसोऽर्हति॥९।२
जड़ से युक्त शीतल आहार भोजन से अनावृत स्थान में सोने वाला प्राणी जो स्वपसमूह देखता है, वह विह्वल व्यक्ति के गमन के समान विचार के योग्य नहीं होता है।
तदा तदास्येन्दुसमुल्लसद्वचः सुधारसस्वादनसादरश्रुतिः।
गिरा गभीरस्फुटवर्णया जगत्रयस्य भर्ना जगदे सुमङ्गला॥९।१ शब्दों के समुचित विन्यास और भावों के समुचित निर्वाह में कवि के काव्य का छटा देखिएसम्पन्नकामा नयनाभिरामाः
सदैव जीवत्प्रसवा अवामाः। यत्रोज्झितान्यप्रमदावलोक
अदृष्टशोका न्यविशत्त लोकाः॥१।२
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