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________________ जिस कोशला नगरी में सम्पन्न मनोरथ, नयनाभिराम, सदैव (जीवितावधि) जीवित रहने वाली सन्तानों से युक्त, परस्पर प्रतिकूल न रहने वाले, परस्त्री पर दृष्टिपात का त्याग किए हुए तथा (इष्ट वस्तु आदि का वियोग न होने के कारण) जिनका शोक दिखाई नहीं देता है, ऐसे लोग निवास करते हैं । श्री जयशेखरसूरि के काव्य में पदशय्या की स्वाभाविक छटा शब्दों के स्वत: गुम्फन में दर्शनीय है रत्नौकसां रुग्निकरेण राकी कृतासु सर्वास्वपि शर्वरीषु । सिद्धिन मन्त्रा इव दुः प्रयुक्ता यत्राभिलाषा ययुरित्वरीणाम् ॥ ५ ॥ ७ जिस नगरी में रत्नमय आवासों के कान्तिसमूह से समस्त रात्रियों के पूर्णिमा के सदृश किए जाने पर असती स्त्रियों की अभिलाषा दुः प्रयुक्त (मारणादिक कर्म में लगाए हुए) मन्त्र के समान सिद्धि को प्राप्त नहीं हुई । श्री जयशेखरसूरि ने काव्य में चमत्कार लाने के लिए श्लेष का भी प्रयोग किया है। जहाँ कहीं भी उन्होंने कवित्व का विलास दिखाना चाहा, वहाँ श्लेष का आश्रय लिया है। जैसे रसालसालं प्रतिदत्तदृष्टौ श्रोतुं च सूक्तानि सतृष्णकर्णे । अनन्यकृत्या अभजन्नमर्त्या यत्र स्वभक्त्याशुकवित्वमुच्चैः ॥ १ ॥ ३३ जिन्हें दूसरा कार्य नहीं है, ऐसे देवों ने आम के वृक्ष के प्रति दृष्टि लगाए हुए तथा सुभाषितों को सुनने के लिए सतृष्ण कानों वाले जिन भगवान् के प्रति अपनी अत्यधिक भक्ति के कारण शुकपक्षीपने (अथवा आशुकवित्व) का सेवन किया । निशा निशाभङ्गविशेषकान्ति- कान्तायुतस्यास्य वर्पुविलोक्य । स्थाने तमः श्याभिकयानिरुद्धं दधौ मुखं लब्धनवोदयाऽपि ॥। ६ । २ रात्रि ने नया उदय प्राप्त होने पर भी स्त्री से युक्त इन भगवान् के हल्दी के टुकड़े के समान विशेष कान्ति वाले ( पक्ष में रात्रि की समाप्ति पर विशेष कान्ति वाले) शरीर को देखकर अन्धकार की कालिमा से व्याप्त मुख को धारण किया। उपर्युक्त अलङ्कारों के अतिरिक्त श्री जयशेखर सूरि ने उपमा, अतिशयोक्ति, विरोधाभास, स्वभावोक्ति, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास आदि अलङ्कारों का समुचित प्रयोग किया है। भगवान् ऋषभदेव के जीवन से सम्बन्धित होने के कारण उनके महनीय चरित्र तथा आत्मा की उज्ज्वलता आदि को आधार बनाकर अनेक स्थानों पर स्तुति की गई है। स्तुतिकर्त्ताओं में इन्द्र, सुमङ्गला तथा उसकी सखियाँ प्रधान हैं। श्री ऋषभदेव की पत्नी और भरत जैसे मोक्षगामी पुरुष की होने वाली माँ सुमङ्गला की इन्द्र ने अत्यधिक प्रशंसा की है। सुमङ्गला की गुणगरिमा नारी जाति का आभूषण है । काव्य का प्रधान रस शान्त है, तथापि अवसर प्राप्त कर कवि ने शृंगार रस की भी अवतारणा की है। श्री जयशेखरसूरि ने नर और नारी दोनों के सौन्दर्य को अपना लक्ष्य बनाया है। भगवान् ऋषभदेव के सौन्दर्य का चित्रण करते हुए वे कहते हैं कटीतटीमप्यतिलङ्घ्य धाँवल्लावण्यपूरः प्रससार तस्य । तथा यथा नाऽनिमिषेन्द्रदृष्टि-द्रोण्योऽप्यलं पारमवाप्तुमस्य ॥ १ । ४३ भगवान् का सौन्दर्यसमूह कटी रूप तट का उल्लंघन कर दौड़ते हुए उस प्रकार फैला कि देवेन्द्रों की दृष्टि रूपी नावें भी इसको पार करने में समर्थ नहीं हुईं। सुमङ्गला और सुनन्दा के करमूल में शोभित हुए दो कड़ों के विषय में कवि कहता है [ प्रस्तावना ] Jain Education International For Private & Personal Use Only ( ९ ) www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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