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ये तयोरशुभतां करणमूले काममोहभटयोः कटकेते।
अङ्गुलीषु सुषमामददुर्या ऊर्मिका ननु भवाब्धिनिधेस्ताः ॥३।७८ जो दो कड़े उन दोनों कन्याओं के करमूला में शो ! हुए, वे काम और मोह भट के सैन्य जानना चाहिए। जिन मुद्रिकाओं ने उन कन्याओं की अङ्गलियों को सुशोभित किया, निश्चित रूप से वे संसार समुद्र की लहरें जानना चाहिए।
नखजितमणिमालौ स्वश्रियापास्तपद्यौ गतिविधुरितहंसौ मर्दिवाति प्रवालौ। तदुचितमिह साक्षीकृत्य देवीस्तदंती
सर्पाद दधतुराभां यत्तुलाकोटिवृत्ताम्॥३।८० यहाँ पर देवी को साक्षी बनाकर नखों से मणि समूह को जीतने वाले, अपनी शोभा से कमलों को तिरस्कृत करने वाले, गति से हंसों को जीतने वाले, सौकुमार्य से नए अङ्करों का अतिक्रमण करने वाले उन (कन्याद्वय) के दोनों चरण तत्काल ही तराजू की डंडी के दोनों छोरों की (उपमा के अग्रभाग से उत्पन्न) शोभा को धारण करें, यह बात उचित ही है। कवि के स्तुत्यात्मक पद्य भगवान् के प्रति उसकी गहरी भावानुभूति को बतलाते हैं। जैसे
मनोऽणुधर्तुंन गुणास्तवाखिलानतद्धृतान्वक्तुमलंवचोऽपि मे।
स्तुतेर्वरं मौनमतो न मन्यते परं रसज्ञैव गुणामृतार्थिनी॥ २॥ ५१ हे नाथ! मेरा छोटा सा मन आपके समस्त गुणों को धारण करने में और मेरा वचन भी धारण किए हुए गुणों का कथन करने में समर्थ नहीं है, अतः स्तुति से मौन अच्छा है, किन्तु गुण रूपी अमृत को चाहने वाली जीभ भी नहीं मानती है।
सुरद्रुमाद्यामुपमां स्मरन्ति यांजनाःस्तुतौ ते भुवनातिशायिनः।
अवैमि ते न्यकृतिमेव वस्तुतस्थापि भक्तिर्मुखरीकरोति माम्॥२॥५२ हे नाथ! लोग भुवनातिशायी आपकी स्तुति में कल्पवृक्ष आदि की उपमा को याद करते हैं। वस्तुतः उस स्तुति को मैं निन्दा के रूप में ही जानता हूँ। फिर भी भक्ति मुझे वाचाल बना रही है। इस प्रकार के अनेक हृदयोद्गारी पद्य जैनकुमारसम्भव में विद्यमान हैं।
कुमारसम्भव और जैनकुमारसम्भव कुमारसम्भव की रचना महाकवि कालिदास ने की। यह अनुमान किया जाता है कि कालिदास ने कुमारसम्भव के आठ ही सर्ग लिखे, शेष ९ सर्ग किसी अन्य ने जोड़ दिए। इस काव्य पर मल्लिनाथ की टीका मिलती है। अष्टम सर्ग में शिव पार्वती संभोग से स्कन्द के भावी जन्म की सूचना मिल जाती है। श्री जयशेखर सूरि को कालिदास कृत कुमारसम्भव से ही जैनकुमारसम्भव लिखने की प्रेरणा मिली। इसमें भी भगवान् ऋषभदेव और सुमङ्गला से उत्पन्न भरत के भावी जन्म की सूचना प्राप्त हो जाती है। कुमारसम्भव का प्रारम्भ 'अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः' से होता है। जैनकुमारसम्भव भी इसी शैली में 'अस्त्युत्तरस्यां दिशि कोशलेति, पुरी परीता परमर्द्धिलोकैः' पंक्ति से प्रारम्भ होता है। कुमारसम्भव की कृति पूर्णतः रसवादी जान पड़ती है, रघुवंश की भाँति कवि यहाँ
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