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किसा नैतिक व्यवस्था का पोषक नहीं दिखाई देता है । जैनकुमारसम्भव रसवादी होने के साथ पूर्णत: नैतिक है। कुमारसम्भव का प्रतिपाद्य यौवन की सरसक्रीड़ा का वर्णन जान पड़ता है। जैनकुमारसम्भव में यौवन की सरस क्रीड़ा के वर्णन के साथ ऋषभदेव के लोकोत्तर चरित्र को अभिव्यक्त किया गया है। कालिदास का काव्य अष्टमसर्ग में जहाँ अभीलता की कोटि में पहुँच गया है, वहाँ जैनकुमारसम्भव में कहीं भी अशीलता के दर्शन नहीं होते। सब जगह शिष्टता और सदाचार के ही दर्शन होते हैं। कुमारसम्भव का छठा और सातवाँ सर्ग विवाह वर्णन से ओत-प्रोत है। जैनकुमारसम्भव के तृतीय, चतुर्थ और पंचम सर्ग विवाह के प्रसङ्गों से भरे हुए हैं। कुमारसम्भव में देवों का वर्णन है, जैनकुमारसम्भव में भी इन्द्रादि देवताओं के प्रसङ्ग हैं। कुमारसम्भव के दैवीय पात्र मानवों जैसा आचरण करते हैं। कुमारसम्भव का कामदेव शिव के मन को जीतना चाहता है, किन्तु जैनकुमार सम्भव के कामदेव ने ऋषभदेव के मन को जीतने की इच्छा नहीं की। शिव ने पार्वती के साथ सुरत सुख का उपभोग करते हुए सैकड़ों ऋतुओं को एक रात्रि की भाँति बिता दिया, किन्तु उनकी सम्भोग सुख की लालसा उसी प्रकार दूर नहीं हुई, जैसे निरन्तर समुद्र के जल में रहने पर भी वडवाग्नि की प्यास नहीं बुझती है । ऋषभदेव ने भी सुमङ्गला और सुनन्दा के साथ विषयों को भोगा, किन्तु अन्य जन्म में उपार्जित अपने भोगने के योग्य कर्म को अवश्य भोक्तव्य जानकर मुक्ति की ही एकमात्र कामना के साथ भोगा। कुमारसम्भव तथा जैनकुमारसम्भव में अनेक स्थानों पर कल्पना साम्य भी है। उदाहरणार्थ
जालान्तरप्रेषितदृष्टिरन्या प्रस्थानभिन्नां न बबन्धनीवीम्। नाभिप्रविष्टाभरणप्रभेण हस्तेन तस्थाववलम्ब्य वासः॥
कुमारसम्भव ७।६० एक स्त्री ज्यों ही शङ्कर को देखने के लिए खिड़की की जालियों में जाकर झाँकने लगी; त्यों ही उसकी नीवी खुल गई और वह उसे बिना बाँधे ही साड़ी को हाथ से पकड़े हुए खड़ी रही। उस समय उसके कंगन में जड़े रत्न की चमक ही उसकी नाभि का आवरण बन गई।
कापि नार्धयमितभूथनीवी प्रक्षरनिवसनापि ललजे। नायकानन निवेशित नेत्रे जन्यलोक निकरेऽपि समेता॥
जैनकुमारसम्भव ५।३९ बराती लोक समूह में भी आगत स्वामी के मुख में जिसने नेत्र निवेशित किए हैं, ऐसी कोई स्त्री अर्द्धनिबद्ध मेखला का गिरता हुआ वस्त्र होने पर भी लज्जित नहीं हुई।
१. डॉ. भोलाशङ्कर व्यासः संस्कृत कवि दर्शन पृ. ८९ २. न तस्य दासीकृतवासवोऽपि मनोमनोयोनिरियेष जेतुम्॥६।२७ ३. समदिवसनिशीथं सङ्गिनस्तत्र शम्भोः।
शतमगमदृतूनां सार्धमेका निशेव॥ न तु सुरतसुखेभ्यश्छिन्न तृष्णो बभूव।
ज्वलन इव समुद्रान्तर्गतिस्तज्जलौघैः॥ कुमारसम्भव ८ । ९१ ४. भोगार्हकर्मध्रुववेद्यमन्य - जन्मार्जितं स्वं स विभुर्विबुध्य ।
मुक्त्येक कामोऽप्युचितोपचारैरभुङ्क्त, ताश्यां विषयानसक्तः॥ जैनकुमारसम्भव ६ । २६
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