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शैलसागरवनीभिरस्खल-त्पक्ष्ममात्रमिलनानियन्त्रितम्।
ज्ञानमेकमनलीकसङ्गतं, नेत्रयुग्ममतिशय्य वर्तते ॥ १७॥ अर्थ :- हे नाथ! सत्य से युक्त, पर्वत, समुद्र तथा महावनों से स्खलन को न प्राप्त करता हुआ एक ज्ञान पलकों से मिलने से नियंत्रित नेत्रयुगल को जीतता हुआ विद्यमान है।
पात्रतैलदशिकादिभिर्चल-निःसहायमधिकायितस्य ते।
अश्नुते नखलु कज्जलध्वज-श्चिन्मयस्य महसः शतांशताम्॥१८॥ अर्थ :- हे नाथ! पात्र, तैल, बत्ती आदि से जलता हुआ दीप निश्चित रूप से तुम्हारे ज्ञान रूप साहाय्य रहित आधिक्य को प्राप्त तेज की शतांशता को नहीं प्राप्त करता है।
सर्वतो विकिरतोऽपि कौमुदी, यस्य शाम्यति न कालिमा हृदः।
स स्पृशत्यपि न ते तमस्विनी-वल्लभः स्वपरभासि चिन्महः॥१९॥ अर्थ :- सब ओर से चांदनी को बिखेरते हुए भी जिस चन्द्रमा की हृदय कालिमा शमन को प्राप्त नहीं होती है। वह चन्द्रमा आपके स्व और पर को प्रकाशित करने वाले ज्ञान तेज का स्पर्श भी नहीं करता है।
जाड्यहेतुनि हिमर्तुसंकटे, याति याऽतिकृशतां रवेः प्रभा।
तां गिरस्तव सदैव दिद्युतो, लजते बत सपत्नयन कः॥ २०॥ अर्थ :- हे नाथ! जो सूर्य की प्रभा जड़ता की हेतु हिम ऋतु के आ जाने पर अत्यन्त कृशता को प्राप्त होती है, उसे सदैव प्रकाशित करते हुए आपकी वाणी से तुलना करने वाला कौन लजित नहीं होता है?
बिभ्रता मतिमतीन्द्रियां त्वया, वस्तुतत्त्वमिह यनिरौच्यत।
नेतरेतदपरेण जन्तुना, दुर्वचं प्रतनुबुद्धितन्तुना ॥ २१॥ अर्थ :- हे स्वामिन् ! तुमने इस संसार में इन्द्रियातीते बुद्धि को धारण करते हुए जिस वस्तु तत्त्व का कथन किया, यह वस्तु तत्त्व दूसरे क्षीणबुद्धि तन्तु वाले जन्तु के द्वारा कथन किया जाना कठिन है।
अस्तु वास्तवफलस्य वास्तु ते, वाग्लता त्वरितमेवमूचुषी।
वासवेश्म निजमाश्रयेति सा, शासनं सपदि पत्युरासदत्॥२२॥ अर्थ :- हे स्वामिन् ! आपकी वाणी रूप लता सम्यक् फल का स्थान हो ऐसा कहती हुई उस सुमङ्गला ने अपने निवास महल का आश्रय करो, इस प्रकार श्री ऋषभदेव के आदेश को पाया। (१४४)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१०]
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