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अर्थ :- हे स्वामिनि! खेद है कि हम प्रमाद करने वालियों ने जिसे सिद्धि उत्पन्न हो गई है ऐसी तुम्हें निकलते हुए नहीं जाना । इस अपराध को चेतना रहित हम अपने हृदय में शल्य के समान धारण करेंगी।
विश्ववन्द्यवधुपारिपार्श्विको-ऽस्त्येव ते सततमप्सरोजनः।
वेधसा हि वयमेव वञ्चिता, यत्कृता भवदुपासनाद्वहिः॥ ३६॥ अर्थ :- त्रिभुवन-वन्द्य-दयिते! अप्सरायें निरन्तर तुम्हारे समीपस्थ हैं ही। निश्चित रूप से ब्रह्म के द्वारा हम ही ठगे गए हैं। जो कि हम लोग आपकी उपासना से विमुख किए गए हैं।
कार्यमेतदजनिष्ट किं तवा-कस्मिकं विमलशीलशालिनि।
यत्पुरा व्रजसि चाटुकोटिभि-र्भर्तुवेश्म तदगाः स्वयं यतः॥३७॥ अर्थ :- हे निर्मल शील से सुशोभित! यह कार्य तुम्हारा क्या आकस्मिक उत्पन्न हुआ जो कि पहले करोड़ों चाटुकारियों पूर्वक पति के घर जाती थीं और अब स्वयं गई।
तद्भविष्यति फलोदये स्फुटं, गूढचारिणि चिरादपि स्वयम्।
किन्तु नः प्रकृतिचञ्चलं मनः-काललालनमियन्न सासहि॥३८॥ अर्थ :- हे प्रच्छन्नगमने! वह कार्य बहुत समय बाद स्वयं फल का उदय होने पर । प्रकट हो जाएगा, किन्तु हमारा स्वभाव से चञ्चल मन इतने काल के विलम्ब को सहन नहीं करता है।
सिञ्च नस्त्वमखिलाः स्वकार्यवाक्-शीकरैः समयभङ्गतापिताः।
सर्वदैक हृदयं सखीगणं, मा पृथग्गणनयाऽवजीगणः॥ ३९॥ अर्थ :- तुम समय के भङ्ग से सन्तप्त हुई हम समस्त सखी समूह को कार्यवचनरूप जलकणों से सींचो । निरन्तर एक हृदय सखी समूह को पृथक् गिनकर तिरस्कार मत करो।
सा सखीभिरिति भाषिता रमे-वोरुपद्ममणुपद्मवेष्टितम्।
अध्यशेत शयनं समन्ततः, सन्निविष्टवरविष्टरावलिः॥ ४०॥ अर्थ :- छोटे-छोटे कमलों से वेष्टित लक्ष्मी जिस प्रकार वृहत् कमल का आश्रय लेती है, उसी प्रकार उस सुमङ्गला ने सखियों के द्वारा ऐसा कहे जाने पर चारों ओर श्रेष्ठ सिंहासनों की श्रेणियों से युक्त शय्या का आश्रय लिया।
एकमूलकमलद्वयाभयो-स्तत्यदोरुपरि पेतुरुत्सुकाः । हेमहंसललनागरुच्छ्यिो , लालनाय शतशः सखीकरा: ॥४१॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१०]
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