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अर्थ :- उस सुमङ्गला ने चित्र मणियों के दीपों की किरणों से ध्वस्त होते हुए अन्धकार वाले उस घर में सुरापान से मत्त हुई.सी लुप्त चेतना वाली मध्य में सोती हुई समस्त सखीजनों को देखा।
सोऽध्वगत्वचपलाङ्गसङ्गतो-न्मेषिघोषमणिमेखलादिभिः। . निद्रयाऽजगरितोऽपि जागरं, द्रागनीयत तया विना गिरम्॥३०॥ अर्थ :- सुमङ्गला के द्वारा नींद से जाग जाने पर भी अजगर के समान आचरण करने वाली सखीजन मार्ग में जाने से चञ्चल शरीर में मिलित जिनका प्रकट घोष है ऐसी मणिमय मेखलाओं आदि से वाणी के बिना ही शीघ्र जागरण को प्राप्त हुईं।
तां ससम्भ्रमसमुत्थितास्ततः, सन्निपत्य परिवठ्रालयः।
उच्छ्वसजलरुहाननां प्रगे, पद्मिनीमिव मधुव्रतालयः॥ ३१॥ अर्थ :- अनन्तर सखियों ने हड़बड़ी में उठकर समुदाय बनाकर विकास को प्राप्त होते हुए कमल सदृश मुख वाली उस सुमङ्गला को उसी प्रकार घेर लिया जैसे भौंरों की पंक्तियाँ प्रातःकाल कमलिनी को घेर लेती हैं।
ऊचिरे त्रिचतुराः पुरस्सरी-भूय भक्तिचतुरा रयेण ताः।
तां प्रणम्य वदनेन्दुमण्डला-भ्यासकुड्मलितपाणिपङ्कजाः॥३२॥ अर्थ :- तीन चार भक्ति में चतुर मुख रूप चन्द्र मण्डल के समीप जिनके कर कमल संकुचित हो गए हैं ऐसी सखियों ने आगे होकर सुमङ्गल को प्रणाम कर वेग से कहा।
- एवमाजनुरसंस्तुतो भवे-द्यः स एव शयितो विमुच्यते। ... उच्यते किमथवा तव प्रभु- परस्य परिभाषणोचितः॥ ३३॥ अर्थ :- हे स्वामिनि! जो व्यक्ति जन्म से लेकर अपरिचित होता है, वही इस प्रकार सुप्त होकर छूटता है अथवा तुम्हारा क्या कहना। स्वामी अन्य के परिभाषण के योग्य नहीं होता है।
युक्तमेव यदि वा विनिर्मितं, सर्वविद्दयितया त्वया सखि।
यत्तमोगुणजिता विमुच्य नो, रुच्यसद्म विकसद्मना गता ॥ ३४॥ अर्थ :- हे सखि! अथवा सर्वा पत्नी तुमने ठीक ही किया जो कि तमोगुण से पराजित हमें छुड़ाकर तुम प्रफुल्ल हृदय वाली होकर पति के घर गयी। .
त्वामविद्मन वयं विनिर्यतीं, जातसिद्धिमिव ही प्रमद्वराः। मन्तुमेतमनपेतचेतना, दध्महे स्वहृदि शल्यवत्पुरा ॥ ३५॥
(१४६)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१०]
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