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________________ अर्थ :- अनन्तर दिशा रूप स्त्रियों के मुखों को प्रसन्न करता हुआ अन्धकार रूप शत्रु का निराकरण करने का इच्छुक, पर्वतों के शिखर पर चरण रखे हुए ग्रहों का स्वामी (सूर्य) उदय को प्राप्त हुआ। अर्थ ११. एकादशः सर्गः निराकरिष्णुस्तिमिरारिपक्षं, महीभृतां मौलिषु दत्तपादः । अथ ग्रहाणामधिभूरुदीये, प्रसादयन् दिग्ललनाननानि ॥ १ ॥ तमिस्त्रबाधाम्बुजबोधधिष्ण-मोषाम्बुशोषाध्वविशोधनाद्याः । अर्थक्रिया भूरितरा अवेक्ष्य-वेधा व्यधादस्य करान् सहस्रम् ॥ २ ॥ अन्धकार की पीड़ा, कमलों का विकास, नक्षत्रों का लोप, जल का सूखना, मार्गशोधन आदि प्रचुर पदार्थों की क्रियाओं को देखकर ब्रह्मा ने इस सूर्य की हजार किरणें बना दी । -: प्रातः प्रयाणाभिमुखं तमिस्त्रं, कोकास्यमालिन्यसरोजमोहौ । आलम्ब्य सार्थं न हि मार्गमेको, गच्छेदितिच्छेदितवन्न नीतिम् ॥ ३ ॥ अर्थ : - प्रातः गमन के सम्मुख चक्रवाकों के मुखों की मलिनता और कमलों के मोह रूप दो पथिकों का सहारा लेकर अन्धकार एक मार्ग से नहीं जाता है, इस नीति का छेदन नहीं किया । तमो ममोन्मादमवेक्ष्य नश्यदेतैरमित्रं स्वगुहास्वधारि । इति कुधेव द्युपतिर्गिरीणां मूर्खो जघानायतकेतुदण्डैः ॥ ४॥ " अर्थ :- अन्धकार मेरे उन्माद को देखकर भाग गया, इन पर्वतों ने मेरे शत्रु अन्धकार को अपनी गुफाओं में धारण कर लिया मानों इस कारण क्रोधित होते हुए से सूर्य ने पर्वतों के मस्तक पर विस्तीर्ण किरणदण्डों से प्रहार किया । क्षाराम्बुपानादनिवृत्ततृष्णः, पूर्वोदधेरेष किमौर्ववह्निः । नदीसर: स्वादुजलानि पातुमुदेति कैश्चिज्जगदे तदेति ॥ ५ ॥ Jain Education International [ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ११ ] For Private & Personal Use Only (१५९) www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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