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अर्थ :- हे प्रिये! मनुष्य के सुखपूर्वक बैठने अथवा सोने पर नेत्रों के कुछ बन्द होने पर स्वप्न के बहाने से देवी जो कहती है, विद्वान् लोग उसके विषय में विचार करते हैं।
अधर्मधर्माधिकतानिबन्धनं, यमीक्षते स्वप्नमपुष्कलं जनः।
वदन्ति वैभातिकमेघगर्जिव-न मोघतादोषपदं तमुत्तमाः॥ ६॥ अर्थ :- हे प्रिये ! लोग थोड़ी अधर्म और धर्म की अधिकता जिसमें कारण है ऐसे जिस स्वप्न को देखते हैं, उसे उत्तम पुरुष प्रभातकालीन मेघ की गर्जना के समान निष्फलता रूपी दोष का स्थान नहीं कहते हैं । तात्पर्य यह है कि जैसे प्रात:कालीन मेघ की गर्जना निष्फल नहीं होती है, उसी प्रकार वह स्वप्न भी सफल ही होता है।
त्वमादृतद्विनिविरीसभाञ्जनं, सभाजनं सिञ्चसि मे वचोऽमृतैः।
सभाजनं यत्तव तन्वते सुरा, विभासि तत्पुण्यविलासभाजनम्॥७॥ अर्थ :- हे प्रिये ! तुम वचन रूप अमृतों से मेरे आदर को प्राप्त शत्रुओं की निविड़ प्रभा के अञ्जन (क्षेपण) को सभा के लोगों पर सींचती हो । देव तुम्हारा जो सत्कार करते हैं उससे पुष्य के विलास की पात्र तुम सुशोभित होती हो।
कुलं कलङ्केन न जातु पङ्किलं, न दुष्कृतस्याभिमुखी च शेमुषी। गिरः शरच्चन्द्रकरानुकारिका, गतं सतन्द्रीकृतहंसवल्लभम् ॥ ८॥ निरर्गलं मङ्गलमङ्गसौष्ठवं, वदावदीभूतविचक्षणा गुणाः। इदं समग्रं सुकृतैः पुराकृतै - (वं कृतज्ञे तव ढौकनीकृतम्॥९॥
युग्मम् अर्थ :- हे कृतज्ञे ! निश्चित रूप से तुम्हारे पहले किए हुए पुण्यों से यह सब भेंट किया गया है। यह तुम्हारा कुल कलङ्क से कभी कलुष नहीं है और तुम्हारी बद्धि पाप के अभिमुख नहीं होती है। तुम्हारी वाणियाँ शरत् कालीन चन्द्रमा की किरणों का अनुसरण करती हैं। तुम्हारी चाल हंसप्रियाओं को आलस्य युक्त बनाती हुई है। तुम्हारे शरीर का सौष्ठव बन्धनरहित मङ्गल है। तुम्हारे गुण वाचालीभूत कवीश्वर हैं।।
न कोऽधिकोत्साहमना धनार्जने, जनेषुको वा न हि भोगलोलुपः।
कुतः पुनः प्राक्तनपुण्यसम्पदं, विना लता वृष्टिमिवेष्टसिद्धयः॥१०॥ अर्थ :- हे प्रिये ! लोगों में कौन धनोपार्जन में अधिक उत्साह से युक्त मन वाला नहीं होता है । अथवा कौन भोगलोलुप नहीं होता है । पुन: पूर्वजन्म की पुण्य सम्पदा के बिना वर्षा के बिना लताओं के समान इष्ट सिद्धियाँ कहाँ से हो सकती हैं?
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-९]
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