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९. नवमः सर्गः
तदा तदास्येन्दुसमुल्लसद्वचः-सुधारसस्वादनसादरश्रुतिः।
गिरा गभीरस्फुटवर्णया जग-त्रयस्य भ; जगदे सुमङ्गला॥१॥ अर्थ :- उस अवसर पर तीनों लोकों के स्वामी श्री ऋषभदेव ने भगवान् के मुखचन्द्र से निकलते हुए अमृत रस से आस्वादन में जिसके दोनों कान आदर सहित हैं ऐसी सुमङ्गला से गम्भीर और स्पष्ट वर्ण युक्त वाणी में कहा।
जुडजडिना जडभक्ष्यभोजना-दनावृतस्थानशयेन जन्तुना।
विलोक्यते यो विकलप्रचारवद्-विचारणं स्वप्नभरो न सोऽर्हति ॥२॥ अर्थ :- हे सुमङ्गला! जड़ से युक्त शीतल आहार भोजन से अनावृत स्थान में सोने वाला प्राणी जो स्वप्नसमूह देखता है, वह विह्वल व्यक्ति के गमन के समान विचार के योग्य नहीं होता है।
निभालयत्यालयगोऽपि यं प्रिये-ऽनुभूतदृष्टश्रुतचिन्तितार्थतः।
नरो निशि स्वप्नमबद्धमानसो, न सोऽपि पंक्तिं फलिनस्य पश्यति॥३॥ अर्थ :- हे प्रिये अबद्ध मन वाला मनुष्य घर में स्थित होता हुआ भी अनुभव किए हुए, देखे हुए, सुने हुए तथा विचार किए हुए पदार्थों से रात्रि में जो स्वप्न देखता है, वह भी जिसका फल है, उसकी पंक्ति को नहीं देखता है।
नरस्य निद्रावधिवीक्षणोत्सवं, तनोति यस्तस्य फलं किमुच्यते।
विमुच्यते सोऽपि विचारतः पृथग्गतः प्रथां यो मलमूत्रबाधया॥ ४॥ अर्थ :- जो स्वप्न मनुष्य की नींद की अवधि तक दर्शनोत्सव करता है, उसका फल क्या कहा जाता है? कुछ भी नहीं। जो स्वप्न मल, मूत्र की बाधा से विस्तार को प्राप्त हुआ, वह भी विचार करने पर अलग किया जाता है अर्थात् ऐसे स्वप्नों का कोई फल नहीं है।
मनाक् समुत्पाद्य दृशोर्निमीलनं, सुखं निषण्णे शयितेऽथवा नरे। प्रवक्ति यत्स्वप्नमिषेण देवता, वितायते तस्य विचारणा बुधैः॥५॥
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[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-९] ,
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