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________________ दृग्युग्ममुल्लसितमुच्छ्वसितां तनुं च, चञ्चन्मतिद्रढिमधाम सुमङ्गला सा । दृष्ट्वाद्भुतं वरयितुर्वचनं विनापि, स्वप्नान्महाफलतयान्वमिमीत सर्वान् ॥ ६७॥ : अर्थ : विस्तार को प्राप्त होती हुई बुद्धि की दृढ़ता की धाम उस सुमङ्गला ने श्री ऋषभदेव के वचन बिना भी नेत्र युगल को विकसित देखकर और शरीर को तरोताजा देखकर समस्त स्वप्नों को महाफल वाला अनुमान किया । हाञ्चक्रे सा स्वामिनो मौनमुद्रा-भेदं तृष्णालुर्वाक्सुधायास्तथापि । धत्ते नोत्कण्ठां गर्जिते केकिनी किं, मेघस्योन्नत्या ज्ञातवर्षागमापि ॥ ६८ ॥ अर्थ वाणी रूप अमृत को पीने की इच्छुक उस सुमङ्गला ने फिर भी स्वामी की मौनमुद्रा के भेदन की इच्छा की। मेघ की उन्नति से जिसे वर्षा का आगमन ज्ञात है, ऐसी मयूरी गर्जना होने पर क्या उत्कण्ठा धारण नहीं करती है ? अपितु धारण करती है । सूरि : श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छवि -: धम्मिल्यादिमहाकवित्वकलनाकल्लेलिनीसानुमान् । वाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते, सर्गो जैनकुमारसम्भवमहाकाव्येऽष्टमोऽयं गतः ॥ ८ ॥ अर्थ :कवियों के समूह रूप मुकुट में हीरे की छवि वाले, धम्मिल्लकुमारचरितादि महाकवित्व के प्रवाह के लिए पर्वत के तुल्य, वाणी से प्रदान किए गए वर वाले श्री जयशेखर सूरि चिरकाल तक विजयशील रहें। उनके द्वारा स्वयं निर्मित जैनकुमारसम्भव महाकाव्य में अष्टम सर्ग समाप्त हुआ । इस प्रकार श्रीमदञ्चलगच्छ में कविचक्रवर्ती श्री जयशेखरसूरि विरचित जैनकुमारसम्भवमहाकाव्य का अष्टम सर्ग समाप्त हुआ । जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, Jain Education International सर्ग - ८ ] For Private & Personal Use Only (१२५) www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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