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________________ अर्थ : अत: हे प्रिये कुछ समय प्रतीक्षा करो । अत्यन्त शीघ्रता इष्टसिद्धि की विघ्न करने वाली है । ऐसा कहते हुए उन प्राज्ञों के स्वामी ने मन के व्यापार को त्याग कर समाधि धारण की। ·-- तस्मान्मनागागमयस्व काल-मतित्वरा विघ्नकरीष्टसिद्धेः । इत्युक्तवांस्त्यक्तमनस्तरङ्गः, क्षणं समाधत्त स मेधिरेशः ॥ ६२ ॥ अर्थ :- दोनों नेत्रों को बन्द कर, वाणी को रोककर, समस्त कायचेष्टाओं को रोककर उन भगवान् ने रात्रि में जिसमें कमल संकुचित हो गए हैं, हंस नाद नहीं कर रहे हैं तथा तरङ्गे सुशोभित हो रही हैं, ऐसे सरोवर का अनुसरण किया । निमील्य नेत्रे विनियम्य वाचं, निरुध्य नेताखिलकायचेष्टाः । निशिप्रसुप्ताब्जमनादिहंसं, सरोऽन्वहार्षीदलसत्तरङ्गम् ॥ ६३ ॥ · स्वप्नानशेषानवधृत्य बुद्धि-बाह्वा मनोवेत्रधरः पुरोगः । महाधियामूहसभामभीष्टां निनाय लोकत्रयनायकस्य ॥ ६४ ॥ अर्थ :- महाबुद्धिशालियों का अग्रगामी मन रूप प्रतीहार समस्त स्वप्नों को बुद्धि रूपी बाहु से पकड़कर तीनों लोकों के स्वामी की अभीष्ट प्रिय विचार सभा में ले गया । (१२४) , अर्थ : ज्ञान रूप अञ्जन से विकसित दृष्टि से जिसने पाप नष्ट कर दिये हैं, उसके भाव रूप विचार समुद्र का ( पक्ष में- गम्भीरता के आधार रूप विचार समुद्र का ) अवगाहन कर स्पष्ट रूप से बुद्धिप्रधान ( मात्स्यिक) चित्त से उन स्वप्नों के फल रूप मोती श्री ऋषभस्वामी को समर्पित किए। अस्ताघताधारविचारवार्धिं, ज्ञानाञ्जनोद्भिन्नदृशावगाह्य । चित्तेन नेतुः स्फुट धीवरेण, समर्पितास्तत्फलयुक्तिमुक्ताः ॥ ६५ ॥ तद्भूर्हर्षामृतरसभरः किं शिरासारणीभिः, स्वान्तानूपाद्युगपदसृपत्क्षेत्रदेशे ऽखिलेऽस्य । लोकत्रातुः कथमितरथा लोमबर्हिः प्ररोहैः, सद्यस्तत्रोल्लसितमसितच्छायसूक्ष्माग्रभागैः ॥ ६६ ॥ अर्थ :उन स्वप्नों से उत्पन्न हर्ष रूपी अमृत के रस का समूह इन लोकरक्षक भगवान् के चित्त रूपी सजल प्रदेश से शिरा रूपी प्रणालियों से समस्त शरीर के प्रदेश में एक साथ फैला, नहीं तो उस क्षेत्र प्रदेश में तत्काल कैसे कृष्ण कान्ति वाले तथा सूक्ष्माग्र भाग से युक्त लोभ रूप घास के अङ्कुरों से एक साथ फैलता । Jain Education International [ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग -८] www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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