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उक्तियों रूप अमृत के सिञ्चन से पुष्ट रक्षा के लिए कण्टक की वाड़ लगाने के लिए मेरा अङ्ग क्या रोमाञ्चों के उदय को (अथवा ऊर्ध्वकण्टकता को) धारण करता है?
श्रुत्योः सुधापारणकं त्वदुक्तया, मत्वा मनोहत्य समीपवासात्।
पिण्डोललोले इव चक्षुषी मे, प्रसृत्य तत्संनिधिमाश्रयेते॥५७॥ अर्थ :- हे प्रिये! तुम्हारे वचनों से दोनों कानों की मनस्तृप्ति पर्यन्त अमृत भोजन जानकर मेरे समीप वास से भुक्तशेष के प्रति मानों लोलुप से दोनों नेत्र कर्ण की समीपता का आश्रय लेते हैं।
एकस्वरूपैरपि मत्प्रमोद-तरोः प्ररोहाय नवाम्बुदत्वम्।
स्वगैरमीभिः कुतुकं खलाशा-वल्लीविनाशाय दवत्वमीये॥५८॥ अर्थ :- एक स्वरूप वाले भी इन स्वप्नों से आश्चर्य है। मेरे हर्ष रूप वृक्ष के अङ्कर के लिए नवीन मेघ का सादृश्य दुष्टों की आशा रूप लताओं के विनाश के लिए दावानलपने को प्राप्त हुआ है।
नैषां फलोक्तावविचार्य युक्त-माचार्यकं कर्तुमहो ममापि।
महामतीनामपि मोहनाय, छद्मस्थतेयं प्रबलप्रमीला॥ ५९॥ अर्थ :- आश्चर्य की बात है। इन स्वप्नों की फलोक्तियों का बिना विचार किए मेरा भी आचार्य कर्म करना युक्त नहीं है । यह छद्मस्थता रूपी सबल निद्रा महाबुद्धिशालियों के भी मोह के लिए है।
यावद्घनाभं घनघातिकर्म-चतुष्कमात्मार्यमणं स्तृणाति।
तावत् तमश्छन्नतया विचारे, स्फुरन्न चेतोऽञ्चति जांघिकत्वम्॥६०॥ अर्थ :- हे प्रिये ! मेघ के समान घात करने वाले ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय
और अन्तराय रूप चार कर्म आत्मा रूपी सूर्य को जब तक आच्छादित करते हैं, तब तक चित्त अज्ञान से आच्छादित होने से शीघ्रता को प्राप्त नहीं होता है।
आकेवलार्चिः कलनं विशङ्ख, वयं न संदेहभिदां विदध्मः।
को वा विना काञ्चनसिद्धिमुर्वीमाधातुमुलॊमनृणां यतेत॥६१॥ अर्थ :- हे प्रिये ! हम केवल ज्ञान के लाभ होने पर शङ्कारहित होकर संशयभेद न करें। अथवा कौन व्यक्ति सुवर्ण की सिद्धि के बिना भारी पृथ्वी को ऋणरहित करने का यत्न करेगा?
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-6]
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