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श्रोतांसि संगोप्य जडानि चेतः, सचेतनं साक्षिरहो विधाय।
संदर्शयन्ती तव सारभावा-निद्रा धुरं छेकधियां दधाति ॥५१॥ अर्थ :- हे प्रिये ! अज्ञान रूप इन्द्रियों को छिपाकर एकान्त में सचेतन मन को साक्षि बनाकर तुम्हारे सारभावों को दिखलाती हुई निद्रा चतुरबुद्धि वाले लोगों के भार को धारण करती है।
एकात्मनोनौ परिमुञ्चती मां, सुस्वप्नसर्वस्वमदत्त तुभ्यम्।
निद्रा ननु स्त्रीप्रकृतिः करोति, को वा स्वजातौ न हि पक्षपातम्॥५२॥ अर्थ :- जिन दोनों का एक स्वरूप है ऐसे हम दोनों में से मुझे छोड़कर निश्चित रूप से स्त्री स्वभाव वाली निद्रा ने तुम्हें सुस्वप्नों के सर्वस्व को दिया। अथवा निश्चित रूप से अपनी जाति के प्रति पक्षपात कौन नहीं करता है? अपितु सभी करते हैं।
दुर्घोषलालाश्रुतिदन्तघर्षा-दिकं विकर्माप्यत निद्रया यैः।
स्वप्नव्रजे श्रोत्रपथातिथौ ते, ते खेदतः स्वं खलु निन्दितारः॥५३॥ अर्थ :- जिन पुरुषों ने नींद से बुरी आवाज, लार गिरना, दाँत घिसना रूप विकर्म प्राप्त किए वे तुम्हारे स्वप्न समूह के कर्णपथ के अतिथि होने पर निश्चित रूप से अपनी निन्दा करेंगे।
आदौ विरामे च फलानि कल्प-वल्लेरिव स्वादुविपाकभाजः।
नेमाननेमानपि नीरजाक्षि, स्वप्नान् दृशः कर्मकरोत्यपुण्या॥५४॥ अर्थ :- हे कमललोचने ! पुण्यरहिता स्त्री आदि में और अन्त में कल्पलता के फल के समान स्वाद युक्त फलों का भोग कराने वाले इन चौदह स्वप्नों को अर्द्धरहित भी नहीं देखती है।
निशम्य सम्यक् फलदानशौण्डान्, स्वप्नानिमांस्ते वदनादिदानीम्।।
दक्षे ममोल्लासमियर्ति वक्षः, किं स्थानदानाय मुदाभराणाम्॥ ५५॥ अर्थ :- हे विचक्षणे! मेरा हृदय इस समय तुम्हारे मुख से सम्यक् फलों को प्रदान करने में समर्थ इन स्वप्नों के विषय में सुनकर प्रसन्नता के समूहों को स्थान प्रदान करने के लिए विस्तार को प्राप्त होता है।
आनन्दमाकन्दतरौ हृदाल-वाले त्वदुक्तामृतसेकपुष्टे।
रक्षावृतिं सूत्रयितुं किमङ्ग-ममाङ्गमुत्कण्टकतां दधाति ॥५६॥ अर्थ :- हे सुमङ्गला! मेरे हृदय रूप थावले में हर्ष रूप आम्र वृक्ष में आपकी
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[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-८]
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