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________________ अर्थ :- हे ईश! यह विचार अतीन्द्रिय ज्ञान के निधि आपके क्लेश के कान नहीं होता है। महान् पर्वत के तट को भेदन करने के लिए घट के समान आचरण करता हुआ वज्र क्या प्रयत्नपूर्वक तृण को काटता है? अपितु प्रयत्न के बिना ही काटता है। उद्भूतकौतूहलया रयेणा-जागर्यथास्तन्मयि मास्म कुप्यः। ___ कालातिपातं हि सहेत नेतर्न कौतुकावेशवशस्त्वरीव॥ ४६॥ अर्थ :- हे नाथ! वेगपूर्वक मेरे द्वारा जिसके कौतूहल उत्पन्न हुआ, उसके द्वारा तुम जाग्रत कर दिए गए हो, अत: मेरे ऊपर कुपित मत होइए। हे स्वामिन् ! कौतुक के आवेश के वश पुरुष उत्सुक के समान काल के विलम्ब को सहन नहीं करता है। श्रुत्वा प्रियालापमिति प्रियायाः, प्रीतिं जगन्वान जगदेकदेवः। वाचं मृदुस्वादुतया सुधाब्धि-गर्भादिवाप्तप्रभवामुवाच॥ ४७॥ अर्थ :- प्रिया की इस प्रकार प्रिय बातचीत को सुनकर प्रीति को प्राप्त हुए संसार के एकमात्र देव श्री ऋषभदेव ने मृदु और स्वाद युक्त. अमृत समुद्र के मध्य से ही मानों जिसकी उत्पत्ति हुई हो ऐसी वाणी में कहा। प्रिये किमेतजगदे मदेकात्मया त्वया हन्त तटस्थयेव।। त्वदुक्तिपानोत्सव एव निद्रा-भङ्गस्य मे दस्यति वैमनस्यम्॥४८॥ अर्थ :- हे प्रिये! मेरे साथ जिसकी एक आत्मा है ऐसी तुमने तटस्था के समान ये क्या कहा? आपकी उक्तियों के पान करने का उत्सव ही मेरे निद्राभङ्ग की मनोव्यथा को दूर करता है। निद्रा तमोमय्यपि किं विगेया, सुस्वप्नदानात् परमोपकी। जाये जगजीवनदातुरब्दा-गमस्य को निन्दति पङ्किलत्वम्॥४९॥ अर्थ :- हे प्रिये! तमोमयी होने पर भी सुन्दर स्वप्नों के दान से परम उपकार करने वाली निद्रा क्या निन्द्य है? अपितु नहीं है । संसार को जीवन दान देने वाले वर्षाकाल के कोचड़पने की कौन निन्दा करता है? अपितु कोई नहीं। भद्रङ्करी निर्भरसेवनेन, निद्राह्वया काचन देवतेयम्। दूरस्थितं वस्तु निरस्तनेत्रा-नप्यङ्गिनो ग्राहयते यदीहा ॥५०॥ अर्थ :- हे प्रिये! यह निद्रा नाम की कोई देवी अत्यधिक सेवन करने से सुखकर है. जिस निद्रा की इच्छा, जिन्होंने नेत्रों के व्यापार को छोड़ दिया है ऐसे प्राणियों को दूरस्थित भी वस्तु को दिला देती है। [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-८] (१२१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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