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तुम्हारे नाम रूपी औषधि की प्राप्ति से नहीं थे। शत्रुओं से रहित तुम जैसे पति का आश्रय लेकर मुझे भय की उत्पत्ति कहाँ से हो सकती है?
एवं सुखास्वादरसोर्जितायां, मनस्तनुक्लेशविवर्जितायाम्।
स्वप्नैर्बभूवे मयि यैस्तदर्थ-मीमांसया मांसलय प्रमोदम्॥ ४०॥ अर्थ :- इस प्रकार सुख के आस्वाद के रस से बलिष्ठ, मन और शरीर के क्लेश से रहित मुझे जो स्वप्न हुए उनके अर्थ का विचार कर मेरे प्रमोद की वृद्धि कीजिए।
सूक्ष्मेषु भावेषु विचारणायां, मेधा न मे धावति बालिशायाः।
त्वमेव सर्वज्ञ ततः प्रमाणं, रात्रौ गृहालोक इव प्रदीपः॥४१॥ अर्थ :- हे नाथ! मूर्ख मेरी बुद्धि सूक्ष्म भावों का विचार करने की ओर नहीं दौड़ती है। अतः हे सर्वज्ञ ! रात्रि में जिस प्रकार दीपक घर का आलोक होता है, उसी प्रकार तुम ही प्रमाण हो।
यद्दीपगौरद्युतिभास्कराणां, प्रकाशभासामपि दुळपोहम्।
हाई तमस्तक्षणतः क्षिणोति, वाग्ब्रह्मतेजस्तव तन्वपीश ॥४२॥ अर्ध :- क्योंकि दीपक, चन्द्रमा और सूर्य जैसे प्रकट तेज वालों का भी हृदय सम्बन्धी अन्धकार दुःख से दूर होने योग्य है। हे ईश! उस हृदय के अन्धकार को वचन ज्ञान सम्बन्धी तेज सूक्ष्म होते हुए भी क्षण भर में क्षय कर देता है।
यत्र क्रचिद्वस्तुनि संशयानाः, स्मरन्ति यस्य त्रिदशेशितारः।।
तत्रान्तिकस्थे त्वयि शास्त्रदृश्वा, मानार्ह नाहंत्यपरोऽनुयोक्तुम्॥४३॥ अर्थ :-- हे नाथ! इन्द्र जिस किसी वस्तु में संशय हो जाने पर आपका स्मरण करते हैं, हे भान के योग्य ! उम्प वस्तु के विषय में आपके निकटवर्ती होने पर दूसरा शास्त्रदृष्टा उनके योगः ही होता है।
दूर्मवातीनि तमांसि हत्वा, गोभिर्बभूवान् भुवि कर्मसाक्षी।
इदं हृदन्तर्मम दीप्रदेह, संदेहरक्षः स्फुरदेव रक्ष॥ ४४॥ अर्थ :- हे दीप्यमान शरीर ! वचनों से (अथवा किरणों से) तुम इस सन्देह रूपी राक्षस से, जो कि मेरे हृदय के मध्य स्फुरायमान हो रहा है (फैल रहा है), रक्षा करो। दर्शन क्रया ( अथवा ज्ञान क्रिया) का घात करने वाले पापों को (अथवा अन्धकारों को) नष्ट कर पृथिवी पर (तुम) कर्मों के साक्षी (सूर्य) हुए।
अतीन्द्रियज्ञाननिधेस्तवेश, क्लेशाय नायं घटते विचारः। भक्तुं महाशैलतटीं घटीय-द्वजं किमायस्य तृणं तृणेढि ॥ ४५ ॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-८]
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