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________________ ततोऽत्यभीष्टामपि सर्वसार-स्वप्नौघसंदर्शनया कृतार्थाम्। विसृज्य निद्रां चतुराञ्चित त्वां, तत्त्वार्थमीमांसिषयागतास्मि॥३४॥ अर्थ :- हे विद्वत्पूजित! अनन्तर मैं अत्यन्त अभीष्ट होने पर भी समस्त सार रूप स्वप्नों के देखने से कृतार्थ हुई निद्रा को छोड़कर तत्त्वार्थ पर विचार करने की इच्छा से तुम्हारे समीप आयी हूँ। वस्त्वाकृषन्ती भवतः प्रसाद-संदंशकेनापि दविष्ठमिष्टम्। न कोऽपि दुष्प्रापपदार्थलोभ-जन्माऽभजन् मां भगवंस्तदाधिः॥३५॥ अर्थ :- हे भगवान् किसी पाने में अशक्य पदार्थ के लोभ से जन्य मानसिक दुःख ने उस अवसर पर आपकी कृपा रूप संदंश (सँडासी) से अत्यन्त दूर अभीष्ट वस्तु को आकर्षित करने वाली मेरा सेवन नहीं किया। आकूतमक्षिभ्रुवचेष्टयैव, हार्दै विबुध्याखिलकर्मकारी। न स्वैरचारीति परिच्छदोऽपि, मनो दुनोति स्म तदा मदीयम्॥३६॥ अर्थ :- हे नाथ! तब आँख और भौंह की चेष्टाओं से ही हृदय के अभिप्राय को जानकर समस्त कार्य करने वाला परिवार भी इच्छानुसार आचरण करता है, अत: मेरा मन दुःखी नहीं है। म अपि द्वितीयाद्वितये विभज्य, चित्तं च वित्तं च समं समीचा। त्वया न सापल्यभवोऽभिभूति-लवोऽपि मेऽदत्त तदानुतापम्॥३७॥ अर्थ :- हे नाथ! तुमने दोनों पत्नियों में भी चित्त और धन का समान विभाग कर भली प्रकार आचरण के द्वारा उस समय सपत्नी से उत्पन्न तिरस्कार के लेशमात्र भी विषाद को नहीं दिया। आसीन मे वर्मणिमारुतादि-प्रकोपतः कोऽपि तदा विकारः। त्वयि प्रसन्ने न हि लब्धबाधा, मिथः पुमर्था इव धातवोऽपि ॥३८॥ अर्थ :- हे नाथ! उस अवसर पर मेरे शरीर में वायु आदि के प्रकोप से कोई विकार नहीं था। तुम्हारे प्रसन्न होने पर धातुयें भी पुमर्थ के समान परस्पर में बाधायें नहीं प्राप्त करती है। गदा वपुः कुम्भगदाभिघाता, नासंस्तदा त्वन्निगदागदाप्त्या। अजातशत्रु पतिमाश्रिताया-स्त्वां मे कुतः सम्भव एव भीतेः॥३९॥ अर्थ :- हे नाथ! शरीर रूपी कुम्भ पर गदा के अभिघात के सदृश रोग मुझे उस समय [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-८] (११९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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