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________________ न जापलक्षैरपि यन्निरीक्षणं, क्षणं समश्येत विचक्षणैरपि। सुराङ्गनाः सुन्दरि तास्तव क्रम-द्वयस्य दास्यं स्पृहयन्ति पुण्यतः॥११॥ अर्थ :- विद्वानों के द्वारा भी जिनका निरीक्षण लाखा जापों से क्षण भर के लिए भी प्राप्त नहीं होता है , हे सुन्दरि! वे देवाङ्गनायें तुम्हारे चरणयुगल की पुण्य से दासता चाहती हैं। नकापथे कण्टककोटिसंकटे, पदेषु कासाञ्चन पादुका अपि। मणिक्षमाचारभवः क्रमक्लमः,शमं सुरीभिः सुकृतैस्तवाप्यते॥१२॥ अर्थ :- हे प्रिये ! किन्हीं स्त्रियों की कंटकों की कोटि से व्याप्त कुमार्ग में चरणों में । पादुका भी नहीं होती है। देवाङ्गनायें तुम्हारे मणिमय फर्श पर चलने से उत्पन्न पैरों की थकान को पुण्यों से शान्त करती हैं। बहुत्वतः काश्चन शायिनां वने, कृशे कुशश्रस्तरकेऽपि शेरते। द्युतल्पतूलीष्वपि न प्रिये रतिः, सुमच्छदप्रच्छदमन्तरेण ते॥१३॥ अर्थ :- हे प्रिये कोई स्त्रियाँ वन में सोने वालों की बहुलता के कारण थोड़े से कुशों की शय्या पर भी शयन करती हैं । हे प्रिये ! तुम्हें स्वर्ग की शय्या के रुई भरे गद्दे पर भी पुष्पों के वस्त्र की चादर के बिना सुख नहीं प्राप्त होता है।। कदन्नमप्यात्ममनोविकल्पनैर्महारसीकृत्य लिहन्ति काश्चन। चटुक्रियां कारयसि धुसत्प्रियाः, फलाशने त्वं सुरभूरुहामपि॥१४॥ अर्थ :- कोई स्त्रियाँ बुरे अन्न को भी अपने मनोविकल्पों से महारस बनाकर आस्वादन करती हैं। तुम देवाङ्गनाओं से कल्पवृक्षों के भी फल खाने में चाटुकारी कराती हो। विनाश्रयं सन्ततदुःखिता ध्रुवं, स्तुवन्ति काश्चित् सुगृहाः पतत्रिणीः। विमानमानच्छिदि धाम्नि लीलया, त्वमिद्धपुण्ये पुनरप्सरायसे ॥१५॥ अर्थ :- हे प्रिये ! कोई स्त्रियाँ आश्रय रूप घर के बिना निरन्तर दुःखी होती हुईं निश्चित रूप से जिनका सुन्दर घर है, ऐसी पक्षिणी की स्तुति करती है। हे समृद्ध पुण्य वाली! तुम विमान के मान का छेदन करने वाले घर में लीला से अप्सरा के समान आचरण करती हो। अखण्डयन्त्या स्वसदःस्थितिं सदा, गतागतं ते सदने वितन्वती। ऋतीयते किं सुकृताञ्चिते शची, तुलां त्वया स्थानमधर्मकं श्रिता॥१६॥ अर्थ :- हे पुण्ययुक्ता ! देवलोक का आश्रय कर तुम्हारे गृह में सदा गमनागमन करती (१२८) [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-९] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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