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हुई इन्द्राणी, अपने स्थान की स्थिति को खाण्डत न करती हुई तुम्हारे सादृश्य को क्या प्राप्त करती है? अपितु नहीं करती है।
प्ररूढदोषाकरनानि निर्भर, कलङ्किनीन्दौ महिषीत्वमीयुषीम्।
तमः समुत्पन्नरुचिं कृतीनरो, न रोहिणीमप्युपमित्सति त्वया ॥१७॥ अर्थ :- हे प्रिये ! विचक्षण मनुष्य तुमसे, अन्धकारों में (अथवा पापों में) जिसकी रुचि उत्पन्न हो गई है, जिसका दोषों की खान (अथवा रात्रि को करने वाला) नाम पड़ गया है, ऐसे चन्द्रमा की पट्टरानीपने को प्राप्त हुई रोहिणी की भी तुलना करने की इच्छा नहीं करता है।
कृतः प्रकर्ष समतामपि त्वया, न सङ्गता श्रीरपि रूपवैभवैः।
स्वकं शकुन्त्याः सदृशं नभोगता-गुणं तृणं जल्पति खेचराङ्गना॥१८॥ अर्थ :- हे प्रिये ! प्रकर्ष कहाँ से, लक्ष्मी भी रूप और वैभवों से तुम्हारे साथ समता को प्राप्त नहीं हुई। विद्याधराङ्गना अपने पक्षी के सदृश आकाश में विचरण करने रूप गुण को तृण के समान तुच्छ कहती है।
निजैििजह्वप्रियतादिदूषणै-ह्रियेव मुञ्चन्ति न जातु या बिलम्। __अनाविलं ते चरितं विषानना, न नागकन्या अनिशं स्पृशन्ति ताः॥१९॥ अर्थ :- हे प्रिये ! जो अपने द्विजिह्वों (सर्प अथवा दुष्ट) की अभीष्टतादि दोषों के कारण मानों लज्जित सी कभी भी बिलों को नहीं छोड़ती हैं वे विषमुखी नागकन्यायें निरन्तर निर्मल तुम्हारे चरित्र का स्पर्श नहीं करती हैं।
नवोदयं सङ्गतया रयात्त्वया, ततोऽतिशिश्ये त्रिजगद्वधूजनः।
तमोबलालब्धभवः परः प्रभा-भरः स्वधर्मेस्तरणेरिव त्विषा॥२०॥ अर्थ :- हे प्रिये ! उस कारण तीनों लोकों (स्वर्ग, मर्त्य और पाताल लोक) की स्त्रियाँ अपने पुण्यों से नवीन उदय को प्राप्त तुमसे अतिक्रान्त हैं। जैसे अपनी किरणों से नवोदय को प्राप्त सूर्य की कान्ति अन्धकार के बल से उत्पन्न अन्य प्रभा समूह से अतिशयता को प्राप्त है।
त्वयेक्षितः स्वप्नगुणो गुणोज्वलो, न जायते जात्यमणिर्यथा वृथा।
पुनः प्रकल्प्या कथमल्पबुद्धिभि-विचारणा तस्य विचक्षणोचिता॥२१॥ अर्थ :- हे प्रिये! तुमसे देखा गया गुणों से उज्वल स्वप्न समूह व्यर्थ नहीं होता है । जैसे - जात्यमणि व्यर्थ नहीं होता है । पुनः अल्पबुद्धि वालों के द्वारा विद्वानों के योग्य उस स्वप्न की विचारण कैसे कल्पित होती है? [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग ९]
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