________________
मृगाक्षि वल्लीव घनाघनोदका - द्भवत्यतः स्वप्नभरान्नवा रमा । प्रयाति गर्भानुगुणात्प्रथां पुनः, पुरोदिता सा सरसीकृताश्रयात् ॥ २२ ॥ अर्थ :हे मृगनयनी ! अत: घने पाप को नष्ट करने से गर्भ के सदृश स्वप्नों के समूह से नवीन लक्ष्मी होती है । जैसे गर्भ के अनुरूप घने मेघ के जल से जिसने छोटे तालाब का आश्रय लिया है ऐसी लता विस्तार को प्राप्त होती है।
अनेन सर्वस्वजनाकुले कुले - नवा नवासं विदधत्यहो गदाः । पुरातना अप्युपयान्ति ते शमं, रसायनेनेव विदोषधीभुवा ॥ २३ ॥
अर्थ :- हे प्रिये ! आश्चर्य की बात है रसायन के समान दोषों से रहित बुद्धि के द्वारा इस स्वप्न समूह से समस्त अपने लोगों से व्याप्त कुल में नए रोग स्थान नहीं बनाते हैं और जो पुराने हैं वे भी शान्ति को प्राप्त हो जाते हैं ।
(जिस प्रकार बुद्धि और औषधि से उत्पन्न रसायन से समस्त अपने लोगों से व्याप्त कुल में नए रोग स्थान नहीं बनाते हैं और जो पुराने हैं, वे भी शान्ति को प्राप्त हो जाते हैं ।)
दिनोदयेनेव हते सुसंहते ऽमुना घनारिष्टतमित्रमण्डले । कुले विलासं कमलावदुत्पले, करोति पुण्यप्रभवा शिवावली ॥ २४ ॥ अर्थ :- स्वप्न के समूह के भली प्रकार मिल जाने पर घने पाप रूपी अन्धकार समूह के हत हो जाने पर पुण्य से उत्पन्न मङ्गलों की श्रेणी दिन का उदय होने पर मेघ और रत्न के समान काले अन्धकार समूह में हत लक्ष्मी जिस प्रकार कमल पर निवास करती है, उसी प्रकार वास करती है ।
अबालभाविश्रुतसौख्यदायिनीं, वृथा विभूतिर्विभुता च यां विना ।
अयं हि तां वर्धयितुं निशान्तरुक्, धृतिं मतिं ब्राह्ममुहूर्तवत्प्रभुः ॥ २५ ॥
अर्थ :लक्ष्मी और प्रभुत्व प्रौढ़ा प्रभा से विख्यात तथा सौख्यदायिनी (पण्डितों में होने वाले शास्त्रसुख को देने वाली ) जिस धृति और बुद्धि के बिना निष्फल होता है । अत्यन्त शान्त जिससे रोग है (जो रात्रि के अवसान में रुचिकर लगती है ) ऐसा यह स्वप्न समूह ब्राह्ममुहूर्त के समान निश्चित रूप से उस धैर्य और बुद्धि को बढ़ाने में समर्थ होता है ।
जनानुरागं जनयन्नयं नवं, ध्रुवोदयप्राभवदानलग्नकः ।
यदन्यदप्यत्र मनोहरं तद-प्यनेन जानीहि पुरः स्फुरत् प्रिये ॥ २६ ॥
(१३०)
Jain Education International
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-९ ]
www.jainelibrary.org
For Private & Personal Use Only