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अर्थ :- हे प्रिये ! नए जनानुराग को उत्पन्न करता हुआ यह स्वप्न समूह निश्चित उदय रूप स्वामित्व के दान में प्रतिभू (जमानत करने वाला) है। जो अन्य भी तीनों लोकों में मनोहर वस्तु है, वह भी इस स्वप्नसमूह के आगे देदीप्यमान जानो।
यदिष्यते हन्त शुभानिमित्ततः, पुरापि तद्वस्तु समस्तमस्ति मे। भवनशीतांशुमहोमहोज्ज्वले, दिनेन दीपः परभागमृच्छति ॥ २७॥ असावसामान्यगुणैकभूरिति, त्वया विशालाक्षि वृथा न चिन्त्यताम्।
फलं यदग्र्यं तदथ ब्रबीमि ते, मितेः परां कोटिमियतु संमदः॥ २८॥ अर्थ :- हे प्रिये! शुभ निमित्त से जो वस्तु चाही जाती है, वह सब पहले से ही मेरी है। सर्य के तेज से देदीप्यमान दिन में दीप गुणोत्कर्ष को प्राप्त नहीं होता है। हे विशाल नेत्रों वाली! यह स्वप्न का समूह असामान्य गुणों का एक स्थान है। अतः तुम व्यर्थ चिन्ता मत करो। जो प्रशस्य फल है, उसके विषय में कहता हूँ। तुम्हारा हर्ष गणना की उत्कृष्ट कोटि को प्राप्त हो।
चतुर्दशस्वप्ननिभालनद्रुम-स्तनोत्यसौ मातुरुभे शुभेफले।
इहैकमर्हजननं महत्फलं, तनु द्वितीयं ननु चक्रिणो जनुः॥२९॥ अर्थ :- यह चौदह स्वप्न के देखने रूप वृक्ष माता को दो शुभ फल प्रदान करता है। इनमें से एक अर्हन्त भगवान् के जन्म रूप महान् फल है। दूसरा थोड़ा निश्चित रूप से चक्रवर्ती का जन्म है।
प्रदुष्टभावारिभयच्छिदं स्फुटी-कृता निशीथे सुकृतैः पुराकृतैः।
तदर्घवीक्षा विशिनष्टि केशवो-द्भवं भवोत्तारमरागवागिव॥३०॥ अर्थ :- भव्य जीवों के पहले किए गए पुण्यों से स्पष्ट की गई वीतराग वाणी के समान उनकी महत्ता का दर्शन अत्यधिक दुष्ट क्रोध, मान, माया, लोभादि भाव शत्रुओं के भय को छेद करने वाले एवं संसार को पार करने वाले वासुदेव की उत्पत्ति को कहता है।
बलं सुतं यच्छति तच्चतुष्टयी, लतेव जातिः कुसुमं समुज्वलम्।
तदेकतां वीक्ष्य तदेकतानया, स्त्रियाङ्गभूर्माण्डलिकः प्रकल्प्यताम्॥३१॥ अर्थ :- उन स्वप्नों की चतुष्टयी मालती लता जिस प्रकार पुष्प को देती है उसी प्रकार समुज्वल बलदेव पुत्र को देती है। उन स्वप्नों में सावधानी से स्त्री के द्वारा उन स्वप्नों की एकता (एक स्वप्न) को देखकर माण्डलिक पुत्र के विषय में विचार करो।
तदीदृशस्वप्नविलोकनात्त्वया - ऽधिगंस्यते चक्रधरस्तनूरुहः।
विशन्ति विद्याः किल यं चतुर्दश, श्रयन्ति रत्नान्यपि संख्यया तया॥३२॥ [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-९]
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