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________________ मयैव जातानि मयैव वर्धिता-न्यवाङ्मुखीभूय ममावतस्थिरे। इमानि पद्मानि रमानिवासतामवाप्य माद्यन्मधुपैश्च सङ्गतिम्॥ ६०॥ प्रशाधि विश्वाधिप किं करोम्यहं, त्वमीशिषे मूढजनानुशासने। इदं वस्तत्त्वधियः कृते स्वयं, जडस्तडागः किमुपास्त ते सुतम्॥६१॥ अर्थ :- हे प्रिये ! स्वयं जड सरोवर ये कमल मुझसे ही उत्पन्न हुए, मुझसे ही वृद्धि को प्राप्त हुए लक्ष्मी के निवास और मदमत्त होते हुए भ्रमरों की सङ्गति को पाकर मेरे सामने नीचे की ओर सिर किए हुए खड़े हुए हैं । हे चक्रवर्तिन् ! शिक्षा दो, मैं क्या करूँ, तुम मूढ़ जनों को शिक्षा देने में समर्थ हो, इस बात को बोलते हुए परमार्थबुद्धि के लिए क्या तुम्हारे पुत्र की सेवा करता है? निभालनानीरनिधेरधीश्वरः, सरस्वतीनां रसपूर्तिसंस्पृशाम्। अलब्धमध्योऽर्थिभिराश्रितो घनैः, सुतस्तवात्येष्यति न स्वधारणाम्॥६२॥ अर्थ :- हे प्रिये ! समुद्र के देखने से (जल की पूर्ति का स्पर्श करने वाली) श्रृङ्गारादि रसों की पूर्ति का स्पर्श करने वाली, सरस्वती का (सरस्वती नदी का) स्वामी, गम्भीर तथा बहुत से याचकों से आश्रित (घनेमेघ से आश्रित) तुम्हारा पुत्र अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करेगा। प्रचेतसापि स्फुटपाशपाणिना, कृपाणिना मध्यशयेन जिष्णुना। नराजनीतेः किल कूलमुद्रुजो, न्यवारि मात्स्यः समयो भवन्मयि॥६३॥ धरातलं धन्यमिदं त्वयि प्रभौ, न यत्रयव्यत्ययदोषमाप्स्यति। इति स्ववीचिध्वनितैरिव स्तुवन्, किमाविरासीत्पुरतोऽस्य वारिधिः॥६४॥ अर्थ :- हे प्रिये ! समुद्र, इस तुम्हारे पुत्र के सामने स्पष्ट रूप से पाश जिसके हाथ में है ऐसे वरुण से भी, खड्गयुक्त मध्यवर्ती नारायण ने निश्चित रूप से राजनीति के तट को तोड़ने वाले मत्स्य न्याय का मेरे विद्यमान रहते हुए निवारण नहीं किया, यह पृथ्वी तल धन्य है जो कि तुम जैसे प्रभु के रहते हुए न्याय की विपरीतता के दोष को नहीं प्राप्त करेगा, इस प्रकार अपनी तरङ्गों की ध्वनि से मानों स्तुति करता हुआ क्या प्रकट हुआ था? प्रिये विमानेन गतेन गोचरं, समीयुषा भोगसमं समुच्छ्रयम्। उदारवृन्दारकवल्लभश्रिया, भवद्भुवा भाव्यमदभ्रवेदिना॥६५॥ अर्थ :- हं प्रिये! तुमने जो विमान के दृष्टिगोचर होने के विषय में पूछा (उसका फल यह है कि) भोग के सदृश (पक्ष में-विस्तार के सदृश) वृद्धि को प्राप्त करने की इच्छा जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-९] (१३७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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