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________________ अर्थ :- हे प्रिये ! अथवा मनोज्ञ क्षुद्रघंटियों के शब्दों से तुम्हारी सेनाओं के अग्रभाग में स्थित आकाश में केतु इस संज्ञा का परिस्फुरण करते हुए उसे देखकर विपक्ष वर्ग स्वयं नष्ट हो जाएगा, ऐसा कहते हुए ध्वज क्या इनके प्रिय मित्र जैसा हो गया। तो युद्ध में विपक्ष वर्ग के साथ में कभी भी खिन्न मत होना। आप युवा होकर समस्त बालसुलभ चञ्चलता को मेरे ऊपर रखकर गम्भीरता के गुण को धारण करें, ऐसा कहते ध्वज क्या इनका प्रिय मित्र जैसा हो गया? बिभर्तु गांभीर्यगुणं युवा भवा-निधाय सर्वे मयि बालचापलम् । इति प्रजल्पन् कलकिंकिणीकणै-रमुं किमागात्प्रियमित्रवत् स वा ॥ ५५ ॥ न्यभालि कुम्भः करभोरु यत्त्वया, ततः सुवृत्तः सुमनश्चयाञ्चितः । गतः सुतस्ते कमलैकपात्रता - मभङ्गमाङ्गल्यदशां श्रयिष्यति ॥ ५६ ॥ अर्थ :हाथी की सूंड के समान जंघाओं वाली ! जो तुमने कलश देखा, उससे तुम्हारा सदाचारी (गोल), साधुओं के पुष्पसमूह से पूजित लक्ष्मी के (कमल के) एकमात्र स्थान को प्राप्त हुआ पुत्र कलश के समान नष्ट नहीं होने वाले माङ्गलिक भावों की दशा का आश्रय लेगा । सुमङ्गलाङ्गीभवितुं तवर्द्धये, विसोढवान् कारुपदाहतीरहम् । विवेश वह्नावनुभूय भूयसी-श्चिराय दण्डान्वितचक्रचालनाः ॥ ५७ ॥ कृतज्ञ मद्दत्तजलैः प्रतीष्यतां, ततस्त्वया चक्रिपदाभिषेचनम् । इतीहितं ज्ञापयितुं किमाययौ, घटः स्फुटत्वं तनयस्य तेऽथवा ॥ ५८ ॥ अर्थ :- हे प्रिये ! अतः घड़ा तुम्हारे पुत्र को, 'मैंने तुम्हारी पुष्टि के लिए सुन्दर मङ्गल अङ्ग होने के लिए कुम्भकार के चरण प्रहारों को सहा । बहु चिरकाल तक दण्ड से युक्त चक्र के चालन का अनुभव कर अग्नि में प्रवेश किया, उस कारण हे चतुर मेरे द्वारा दिए गए जलों से चक्रि पद का अभिषेक तुम स्वीकार करो', यह बतलाने के लिए क्या प्रकट हुआ है ? अर्थ हे कमललोचने ! तुमने जो सरोवर देखा उससे हर्ष सहित मित्रों से आश्रित (पक्षियों से आश्रित) प्रफुल्ल लक्ष्मी से युक्त (विकसित कमलों से युक्त) तथा साधुओं की श्रेणी से युक्त (मनोज्ञ श्रेणि से युक्त) तुम्हारा पुत्र बहुत से आगम से उत्पन्न (वर्षा ऋतु से उत्पन्न) रस (पानी, अथवा शृङ्गारादि रस) को धारण करेगा । सरः सरोजाक्षि यदैक्षि तेन ते, सुतः सतोषैः सवयोभिराश्रितः । प्रफुल्लपद्मोपगतो घनागमौ रसं रसं धास्यति साधुपालियुक् ॥ ५९ ॥ - (१३६) -: Jain Education International [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ९ ] www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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