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________________ अर्थ हे स्वामिन्! मैं तुम्हारे मुख की स्पर्द्धा करने वाले कमल को तेज से संकोच को प्राप्त कराऊँगा तथा तुम्हारी अधिक शोभा के लिए श्वेत छत्र का आश्रय लूँगा, मोतियों के बहाने से चञ्चल तारे जिसने नहीं छोड़े हैं ऐसे तुम अत्यधिक संग्राम का सेवन करने वाले राजाओं के समूह को नष्ट करते हुए मेरे राज (चन्द्र) शब्द को मिटाने योग्य नहीं हो, यह चन्द्र तुम्हारे पुत्र से मानों यह निवेदन करने के लिए वेगपूर्वक उपस्थित हुआ है 1 -: दिशन् विकाशं गुणसद्मपद्मिनी-मुखारविन्देषु सदा सुगन्धिषु । निरुद्धदोषोदयमात्मजस्तव, प्रपत्स्यते धाम रवेरवेक्षणात् ॥ ५० ॥ अर्थ :- हे प्रिये ! सूर्य के देखने से तुम्हारा पुत्र सदा सुगन्धित गुणों की खान स्वरूप पद्मिनी स्त्रियों के मुखारविन्दों पर विकाश को दिखलाते हुए तेज को प्राप्त करेगा (सूर्य के पक्ष में गुणाः का अर्थ तन्तु तथा पद्मिनी का अर्थ कमलिनी है) । उदेष्यतस्त्वत्तनयस्य तेजसा, दिवाकरो दीप्तिदरिद्रतां गतः । मृगाक्षि मन्येऽबलयापि तत् त्वया, सुदर्शनः स्वप्नपरम्परास्वयम्॥५१॥ अर्थ :- हे मृगनयनी ! मैं तो यह मानता हूँ कि उदित होने वाले तुम्हारे पुत्र के तेज से सूर्य दीप्ति की दरिद्रता को प्राप्त हुआ है, अत: तुम अबला के द्वारा भी यह स्वप्न की परम्पराओं में सुदर्शन हुआ। मया नभः स्थालदशेन्धनेन ते, विधातुरारात्रिककर्म भावि तत् । ममोर्ध्वगत्वं च महश्च मृष्यतां भवद्भुवं वक्तुमिदं सवा ययौ ॥ ५२ ॥ अर्थ :अथवा वह सूर्य आपके पुत्र से मुझ ब्राह्मण द्वारा आकाश रूपी पात्र में दीपक द्वारा तुम्हारा रात्रि सम्बन्धी कार्य होगा, अतः मेरे उच्चगमनपने को और तेज को सहन करो, यह कहने के लिए आया है। ध्वजावलोकाद्दयिते तवाङ्जो, रजोभिरस्पृष्टवपुः कुसङ्गजैः । गमी गुणाढ्यः शिरसोऽवतंसतां, कुले विशाले विपुलक्षणस्पृशि ॥ ५३ ॥ अर्थ हे दयिते ! ध्वज के देखने से तुम्हारा बुरे सङ्ग से उत्पन्न पापों से (पृथ्वी के सङ्ग से उत्पन्न धूलियों से ) अस्पृष्ट शरीर वाला तथा विनय से (तन्तुओं से ) समृद्ध पुत्र विशाल विपुल क्षणों का स्पर्श करने वाले (अवा विपुल उत्सवों का स्पर्श करने वाले) कुल में मस्तक के मुकुटमणित्व को प्राप्त होगा । परिस्फुरन्तं दिवि केतुसंज्ञया, निरीक्ष्य मां ते पृतनाग्रवर्तिनम् । विपक्षवर्गः स्वयमेव भक्ष्यते, युधेऽमुना तद्भव जातु नातुरः ॥ ५४॥ : [ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ९ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only (१३५) www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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