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________________ से दातारों में देवों सदृश जिसकी प्रिय शोभा है (प्रौढ़ देवों की लक्ष्मी जिनकी है) तथा जो बहुत ज्ञानी है इस प्रकार का तुम्हारा पुत्र होना चाहिए। पुराश्रितं मां परिहृत्य यन्महीं, पुनासि पङ्केरुहतापदैः पदैः । किमत्र हेतुमयि दोषसंभवो, विरागता वा चिरसंस्तवोद्भवा ॥ ६६ ॥ नवीनपुण्यानुपलम्भतोऽथ चे-द्विरक्तिरञ्चिष्यसि तत्कथं शिवम् । प्रसीद मामेथवोपयुज्यते, चटूक्तिरस्नेहरसे न सेतुवत् ॥ ६७॥ यदि त्वयात्यज्यत हन्त ताविषो, विषोपमः सोऽस्तु न तन्ममापि किम् । किमित्यमुष्यानुपदीनमागतं, सुधाशिधामानुनयाय तन्वि वा ॥ ६८ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् । अर्थ :हे दुर्बल शरीर वाली ! अथवा स्वर्गविमान, 'हे स्वामिन्! तुम पुराश्रित मुझे छोड़कर जो कमलों को सन्ताप देते हैं, ऐसे चरणों से पृथ्वी को पवित्र करते हो, यहाँ पर मेरे विषय में दोषों की उत्पत्ति का क्या हेतु है ? अथवा चिरकालीन परिचय से उत्पन्न वैराग्य है । यदि नवीन पुण्य की अप्राप्ति से विरक्ति है तो मोक्ष कैसे जाओगे? प्रसन्न होओ। मेरे समीप आओ । अथवा जिसमें स्नेहरस नहीं है ऐसे पुरुष में चाटुवचन सेतु के समान उपयोग नहीं आते हैं । यदि तुमने स्वर्ग त्याग दिया तो वह मेरे लिए भी विषतुल्य न हो ? अपितु विषतुल्य है, इस प्रकार तुम्हारे पुत्र को मनाने के लिए पीछे पीछे आया है । 1 विलोकिते रत्नगणे स ते सुतः, स्थितौ दधानः किल काञ्चनौचितिम् । उदंशुमत्रासमुपास्य विग्रहं, महीमहेन्द्रैर्महितो भविष्यति ॥ ६९ ॥ अर्थ :- हे प्रिये ! निश्चित रूप से मर्यादा में कोई अपूर्व योग्यता को धारण करता हुआ तुम्हारा पुत्र रत्नों के समूह के देखने से जिससे किरणें निकल रही हैं ऐसे भयरहित शरीर (युद्ध) की सेवा कर पृथ्वी के राजाओं के द्वारा पूजित होगा । न रोहणे कर्कशतागुरौ गिरौ, न सागरे वाऽनुपकारिवारिणि । अहं गतो निर्मलधामयोग्यतां, शुचौ समीहे तव धानि तु स्थितिम् ॥ ७० ॥ परार्थवैयर्थ्यमलीमसं जनुः, पुनीहि मे सन्ततदानवारिणा । तवेति वा प्रार्थयितुं स गर्भगः, सुखं सिषेवे किमु रत्नराशिना ॥ ७१ ॥ : अर्थ हे प्रिये ! अथवा तुम्हारे उस पुत्र का रत्नराशि ने, 'मैं कठिनता के कारण भारी अथवा उपकारहित जल में निर्मल स्थान की योग्यता को प्राप्त नहीं हुआ । पुनः पवित्र आपके तेज में स्थिति चाहता हूँ । हे स्वामिन्! परोपकार की निरर्थकता से मलिन मेरा जन्म निरन्तर दान जल से पवित्र करो', यह प्रार्थना करने के लिए क्या सुख पूर्वक सेवन किया। (१३८). Jain Education International [ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-९] www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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