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स्फुरन्महा: प्राज्यरसोपभोगतो, गतो न जाड्यं द्युतिहेतुहेतिभृत् । ... तव ज्वलद्वह्निविलोकनात्सुतो, द्विषः पतङ्गानिव धक्ष्यति क्षणात्॥७२॥ अर्थ :- प्रभूत पृथ्वी (प्रकृष्ट घृत) के उपभोग से जिसके तेज प्रकट हो रहा है, जो जड़ता को प्राप्त नहीं है, कान्ति के जो हेतुओं (या शास्त्रों) को धारण करता है, ऐसा तुम्हारा पुत्र जलती हुई अग्नि के देखने से शत्रुओं को पतङ्गों के समान क्षण भर में भस्म कर देगा।
प्रभोन मां कोऽप्युपलक्षयिष्यति, क्षितौ चिराद्गोचरमागतोऽस्मि यत्।।
मनुष्व मूर्तिं मम तैजसीमिमां, महानसि स्थापय तन्महानसे॥७३॥ . जने जिघत्सौ यदतीव जीवनं, मयैव तद्भक्ष्यमुपस्करिष्यते।
इति स्वरूपं किममुष्य भाषितुं, भुवि प्रवेक्ष्यन्ननलोऽस्फुरत्पुरः॥७४॥ अर्थ :- अग्नि तुम्हारे पुत्र के, 'हे प्रभो! पृथ्वी पर मुझे कोई भी नहीं देखेगा। क्योंकि बहुत काल से दिखाई पड़ी हूँ। मेरी इस तेज सी मूर्ति को जानिए । तुम महान् हो तो मुझे पाकस्थान पर स्थापित करो। भूखे लोगों का जो भक्ष्य होगा, उसका मैं ही संस्कार करूँगी', यह कहने के लिए पृथ्वी पर प्रविष्ट होने की इच्छा से आगे स्फुरित हुई।
सुदुर्वचं शास्त्रविदामिदं मया, फलं स्वसंवित्तिबलादलापि ते। - दुरासदं यद्व्यवसायसोष्मणां, सुखं तदाकर्षणमान्त्रिकोऽश्नुते ॥ ७५॥ अर्थ :- शास्त्र को जानने वालों के द्वारा कहने में अशक्य व्यवसाय से गर्वयुक्त लोगों के लिए जो वस्तु दुष्प्राप्य है वह आकर्षण मन्त्र को जानने वाला सुखपूर्वक प्राप्त कर लेता है, इस स्वप्नफल को मैंने तुमसे स्वसंवेदन के बल से कहा है।
व्यलीकतादूषणमुत्तमे न मे, मुखप्रियत्वेन गिरोऽधिरोप्यताम्।
सवर्णनाम्ना हि समर्पिता रिरी-भवेत्स्वरूपाधिगमेऽधिकार्तये॥७६॥ अर्थ :- हे उत्तमे! तुम मेरी वाणी को मुख के लिए प्रिय होने से असत्यता रूप दोष पर स्थापित न करो। पीतल निश्चित रूप से सुवर्ण के नाम से समर्पित किए जाने पर स्वरूप का ज्ञान होने पर अधिक पीड़ा के लिए होता है।
इदं वदन्तं भगवन्तमन्तरालयं नभःस्था ऋभवो भवन्मुदः।
सुमैरसिञ्चन् जय संशयक्षया-मयागदंकारवरेति वादिनः॥ ७७॥ अर्थ :- हे संशय रूपी क्षय के लिए श्रेष्ठ वैद्य! तुम्हारी जय हो, यह अहंकार हृदय में आनन्दित होने वाले आकाश में स्थित देवों ने भगवान् के ऊपर पुष्पवृष्टि की।
श्रुत्वेदं दयितवचः प्रमोदपूर्त्या, दधे सा समुदितकण्टकं वपुः स्वम्।
पद्मिन्या निजमुखमित्रपद्ममातु-य॑क्कर्तुं किमिह सकण्टकत्वदोषम्॥७८॥ [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-९]
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