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द्वितीय सर्ग में तेहत्तर पद्य हैं। इसमें कहा गया है कि तुम्बरु और नारद ने इन्द्र की सभा में श्री ऋषभदेव के कान्ति, लक्षण, जीवन, रूप, यौवन से उत्पन्न रूप सम्पदा के विषय में गाया । इन्द्र ने तीनों लोकों के स्वामी परमार्हत् श्री ऋषभदेव के विवाह का अवसर जानकर स्वर्ग से कौशला की ओर प्रस्थान किया। उसने चतुर लोगों के द्वारा जिनके चरणों की वन्दना की गई है, ऐसे श्री ऋषभदेव को देखा। वह तीनों लोकों के स्वामी युगादि भगवान् की पूजा करने के लिए वेग से आए। उन्होंने भगवान् के चरणकमलों में नमस्कार कर उनकी स्तुति की। हे नाथ! आपसे श्रेष्ठ अन्य इस संसार में देव नहीं है। इस संसार में आपके नाम से श्रेष्ठ जप के अक्षर नहीं हैं; क्योंकि आप सर्वोत्कृष्ट हैं । इस संसार में तुम्हारा सेवन करने से उत्कृष्ट कोई पुण्य की राशि नहीं है और तुम्हारी प्राप्ति से उत्कृष्ट कोई शान्ति नहीं है । हे नाथ! मैं तुम्हारे हृदय में निवास करता हूँ, यह कथन स्वामी के योग्य नहीं है (जो नेता होता है, वह सेवकादि को नियंत्रित करता है, सेवक नेताओं को नियंत्रित नहीं करते हैं)। मैं दोनों प्रकार से बोलने में समर्थ नहीं हूँ, अत: करुणा के योग्य मेरे प्रति स्वयं की कृपा करो।
तृतीय सर्ग में इक्यासी पध हैं। यहाँ कहा गया है कि इन्द्र ने अपने स्तुतिवचन जारी रखे। उसने भगवान् से प्रार्थना की कि आप गृहस्थ धर्म रूपी वृक्ष के लिए दोहदस्वरूप पाणिग्रहण के भी प्रथम होओ। यद्यपि आपको विषय सम्बन्धी सुख विष के समान लगता है, तथापि इस समय लोक की स्थिति का पालन कीजिए। आपके द्वारा सुमङ्गला और सुनन्दा का परिणय करने पर पृथ्वीतल पर गए हुए सपत्नीक देवों के विमान एक-एक द्वारपाल से रक्षित हो जाएगें। अपने भोगकर्म के योग्य कर्म को जानते हुए भगवान् ने मौन का सेवन किया। धीरचित्त अतात्त्विक कर्म में प्रायः प्रहसित मुख नहीं होते हैं । इन्द्र भगवान् सम्बन्धी चेष्टाओं से अपने उपक्रम की सिद्धि जानकर सन्तुष्ट हुआ। उसने विवाहोत्सव के लिए समीपवर्ती मुहूर्त ग्रहण किया। इन्द्र के आदेश से इन्द्राणी सुमङ्गला और सुनन्दा के अलङ्करण में लग गईं। आभियोग्य जाति के देवों ने मणिमय मण्डप बनाया। श्री नामक देवी शची की आज्ञा से सुवर्णमयी चन्दन ले आयी। लक्ष्मी ने हर्षित होकर रत्नसमूह को पूरा । सखियों ने दोनों कन्याओं को तेल लगाया। महावर ने कन्याद्वय के चरणतल की सेवा की। माला ने सखी के समान सुमङ्गला और सुनन्दा के कण्ठ का आलिङ्गन किया। किसी देवाङ्गना ने नीलकमल रूप कर्णाभूषणों से उन दोनों के कर्णकूप शीघ्र आच्छादित कर दिए। इन्द्राणी ने दोनों कन्याओं के सिर पर मुकुट रखा। हार ने वक्षःस्थल तथा मुद्रिकाओं ने कन्याओं की अङ्गलियों को सुशोभित किया। नितम्बस्थली में क्षुद्रघंटिकाओं से युक्त मेखला सुशोभित हुई।
चतुर्थ सर्ग में अस्सी पध हैं। इनसे ज्ञात होता है कि इन्द्र ने पाणिग्रहण के अवसर पर समस्त देवसमूह के समागत होने पर सौधर्मस्वर्ग को पृथिवीतल का अतिथिसमूह ही माना। जहाँ भगवान् ऋषभदेव का जन्म हुआ, वह पृथिवी हम लोगों को बहुत बड़ी देवी प्रतीत होती है, उसका चरणों से कैसे स्पर्श करें, मानों ऐसा मानकर क्या देवों ने भूमि पर आकर भी अपने चरणों से भूमि का स्पर्श नहीं किया? इन्द्र ने वर का तैलमर्दन किया। जलकेतकी आदि सुगन्धियों ने स्वामी के केशों को सुवासित करने का प्रयत्न किया। बद्धमुकुट रूप स्थान में हीरों की प्रभा भगवान् के मस्तक पर सुशोभित हो रही थी। कानों में कुण्डल और वक्षःस्थल में हार ने स्थान बना लिया। इन्द्र ने कलाई को कड़े से वेष्टित किया। भगवान् का केवल हस्ततल अनलंकृत था। भगवान् इन्द्र के द्वारा लाए ऐरावत पर सवार हुए। उन पर चँवर डुलाए जा रहे थे। उनके पीछे-पीछे देव समूह पैदल चला। गन्धर्वो ने उनके गुणों का गान किया। उर्वशी, तिलोत्तमा और रम्भा आदि देवाङ्गाओं ने नृत्य किया। उस वरयात्रा ने देवों को भी मोहित
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