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कर दिया। वाद्यों की ध्वनि जैसे-जैसे समीप में सुनाई पड़ी, वैसे-वैसे सुमङ्गला और सुनन्दा का मनमयूर नाच उठा। भगवान् इन्द्र का सहारा लेकर ऐरावत से उतरे। देवाङ्गनायें वर के लिए अर्ध्य लायीं। केसरिया वस्त्र गले में डालकर वर को मण्डप में ले जाया गया। कन्यायें मन ही मन प्रसन्न हुईं।
पंचम सर्ग में पचासी पद्य हैं । इसमें भगवान् ऋषभदेव के विवाहोत्सव का वर्णन है। इन्द्र ने भगवान् के हाथ को दोनों कन्याओं के हाथ से मिलाया। वधुओं के शरीर में शीघ्र सात्विक भावों ने जन्म लिया। इन्द्र ने वर और वधू के अञ्चल को शीघ्र बाँधा। इन्द्राणी दोनों वधुओं को और इन्द्र वर को वेदिका पर लाए। किसी इन्द्र ने उस वेदी पर नई अग्नि जलाई। भगवान् ने चम्पे के पुष्पों की माला को अपनी सखी बनाया। उन्होंने सुमङ्गला और सुनन्दा से समवलिम्बत होकर अग्नि के चारों ओर भ्रमण किया। इन्द्र ने पाणिमोचन विधि में भगवान् के आगे बारह करोड़ सुवर्ण बिखेर दिए। उसने भगवान् को आभूषण भेंट किए तथा भगवान् को रत्नमय सिंहासन भी दिया। पति के हाथ से सुमङ्गला और सुनन्दा ने भक्ष्य सामग्री ग्रहण की। अनन्तर इन्द्र ने भगवान् की वधुओं का विधिवत् वस्त्रांचल मोक्षण किया। देवों ने हर्ष से कोलाहल किया। इन्द्र नृत्य करने लगा। इन्द्र के नृत्य करते हुए हस्तयुगल मुक्ति को ही रोकने के लिए ऊपर उछल रहे थे कि इन स्वामी के रहने पर इस समय विरक्ति रूपी सखी को मत भेजो। अनन्तर भगवान् अपने घर की ओर गए। मार्ग में उन्हें देखने के लिए स्त्रीसमूह व्याकुल हो गया। उनकी विचित्र दशा हो गई। उनका शरीर अद्भुत रस से पूरित नारियों के नेत्ररूप नीलकमल से पूजित हो गया। इन्द्र ने उन्हें आवास द्वार पर कन्धे पर बैठाकर ऐरावत से उतारा। शची ने दोनों वधुओं को कन्धे पर बैठाकर उतारा। इन्द्र ने भगवान् की तथा इन्द्राणी ने वधूद्वय की स्तुति की। वधूद्वय के योग्य कर्तव्य का भी इन्द्राणी ने प्रतिपादन किया। यहाँ स्त्रियों के शीलव्रत के माहात्म्य का सुन्दर वर्णन है। निर्मल मन वाले इन्द्र और शची वर-वधू को भेंट देकर स्वर्ग चले गए।
षष्ठ सर्ग में चौहत्तर पद्य हैं। प्रारम्भ में रात्रि के आगमन का वर्णन है । रात्रि के समय युगादिदेव ने निद्रासुख की इच्छा की। उन्होंने सुमङ्गला और सुनन्दा के साथ देवों द्वारा बनाए गए मणियों के महल में प्रवेश किया। उन्होंने तीन रात्रियाँ बिताकर काम पुरुषार्थ का सेवन किया। नाट्य के अवसर पर अप्सराओं की विलास रूप कल्लोलों से भी वे क्षोभ को प्राप्त नहीं हुए। शिव का कण्ठ विष से, चन्द्र मृग से, गङ्गा सेवाल से तथा वस्त्र मल से कलुषता को प्राप्त होता है, परन्तु सुमङ्गला का शील किसी भी प्रकार कलुषता को प्राप्त नहीं होता था। आकाश के जल के समान निष्कलङ्क, नीति रूपी सुवर्ण की लङ्कास्वरूप, गुणों की श्रेणियों से अद्वितीय दूसरी सुनन्दा नामक पत्नी ने श्री ऋषभदेव को हर्षसमूह प्रदान किया। प्रसन्न हृदय के मदोद्रेक से रहित दोनों सौतों में भी दो बहिनों के समान जो मैत्री हुई, वह अच्छे स्वामी के लाभ से उत्पन्न प्रभाव था। श्री ऋषभदेव के समस्त भोगोपभोग की वस्तुयें इन्द्र लाता था। विभिन्न ऋतुओं ने फल फूलकर भगवान् की सेवा की। सुखपूर्वक कुमारावस्था की क्रीड़ाओं की वशवर्ती होकर छ: लाख पूर्व को एक लव के समान व्यतीत करते हुए भगवान् की आदि प्रिया सुमङ्गला ने स्त्रियों को अभीष्ट स्वामी की कृपा रूप अविनश्वर गर्भ प्राप्त किया।
सातवें सर्ग में सतहत्तर पद्य हैं । एक दिन रात्रि में सुमङ्गला सुखपूर्वक सोयी हुई थी। पूण्यभूमि उसने नींद के सुख को प्राप्त कर एक उत्सव में दूसरे उत्सव के समान सुखदायी स्वप्रदर्शन का अनुभव किया। उसने स्वप्न में गजेन्द्र, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, पुष्पमाला, चन्द्रमा, सूर्य, ध्वज, कुम्भ, तालाब, समुद्र, विमान, रत्नराशि, अग्नि । इन स्वप्नों को देखा। देखकर सुमङ्गला जाग गयी। वह उन स्वप्नों का अर्थ न जानने से क्षण भर के लिए खिन्न हुई। इन स्वप्नों का फल जानने के लिए वह अपने पति के पास
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