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गई। उसने अपने स्वामी को निद्रालीन देखा।
आठवें सर्ग में ६८ पद्य हैं । यहाँ स्वप्न के फलों का वर्णन है । ऋषभदेव के जागने पर सुमङ्गला ने अपने स्वप्नों के विषय में निवेदन किया। भगवान् के नेत्रकमल विकास को प्राप्त हो गए। उन्हें ऐसी स्थिति में देखकर सुमङ्गला ने समस्त स्वप्नों को महाफल वाला अनुमान किया। वाणी रूप अमृत को पीने की इच्छुक उसने फिर भी स्वामी की मौनमुद्रा के भेदन की इच्छा की।
नवम सर्ग में अस्सी पद्य हैं । इस सर्ग के प्रारम्भ में ऋषभदेव द्वारा सुमङ्गला की प्रशंसा वर्णित है। स्वप्न के विषय में भगवान् ने कहा कि नए जनानुराग को उत्पन्न करता हुआ यह स्वप्न समूह निश्चित उदय रूप स्वामित्व के दान में प्रतिभू है। तीनों लोकों में जो मनोहर वस्तु है, वह भी इस स्वप्न के आगे देदीप्यमान है। यह चौदह स्वप्न के देखने रूप वृक्ष माता को दो शुभ फल प्रदान करता है। इनमें से एक अर्हन्त भगवान् के जन्म रूप महान् फल है। दूसरा निश्चित रूप से चक्रवर्ती का जन्म है। तुमने आदि में ऐरावत का बान्धष हाथी सामने देखा, उससे तुम्हारा पुत्र मनुष्य लोक में भी इन्द्र की लक्ष्मी को धारण करेगा। वृषभ के देखने से तुम्हारा पुत्र वीर पुरुषों की धुरा को धारण करेगा। सिंह को देखने से तुम्हारा पुत्र प्रभुता प्राप्त करेगा। तुमने जो लक्ष्मी को देखा है, उससे तुम्हारा पुत्र हजार से अधिक स्त्रियों को प्राप्त करेगा। पुष्पमाला को देखने का यह फल है कि तुम्हारा पुत्र अपनी कीर्ति के सौरभ से तीनों लोकों को व्याप्त करने वाला होगा। चन्द्र दर्शन से तुम्हारा पुत्र कलावान् होगा। सूर्य के देखने से तुम्हारा पुत्र तेजस्वी होगा। ध्वज़, के देखने से तुम्हारा पुत्र बुरे सङ्ग से उत्पन्न पापों से अस्पृष्ट शरीर वाला तथा विनय से समृद्ध पुत्र कुल में मस्तक के मुकुटमणित्व को प्राप्त होगा। कलश को देखने से वह माङ्गलिक दशा को प्राप्त होगा। सरोवर देखने का फल यह है कि तुम्हारा पुत्र आगम से उत्पन्न रस को धारण करेगा। समुद्र को देखने का यह फल है कि तुम्हारा पुत्र अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करेगा। विमान को देखने का फल यह है कि तुम्हारा पुत्र देव सदृश शोभा को प्राप्त करेगा। रत्नों की राशि का यह फल है कि तुम्हारा पुत्र पृथ्वी के राजाओं के द्वारा पूजित होगा। अग्नि को देखने का फल यह है कि तुम्हारा पुत्र शत्रुओं को पतङ्गे के समान भस्म कर देगा।
दशम सर्ग में ८४ पद्य हैं । इसमें कहा गया है कि श्री ऋषभस्वामी के मुख कमल से वाणी रूपी मकरन्द को अत्यधिक पीकर सुमङ्गला ने सुकुमार और मनोज्ञ वाणी में कहा कि हे विभो ! आपकी वाञ्छित अर्थ के फल की सिद्धि का वर्णन करने वाली वाणी जयशील होती है। आपका रूप यदि एक ही काल में कोई देखना चाहता है तो वह इन्द्र ही है। यदि आपको एक साथ कोई पूजा करना चाहता है तो वह इन्द्र ही है, दूसरा नहीं। विधाता ने आपकी वाणी की स्वादुता, मृदुलता, उदारता, सर्वभाव पटुता तथा सत्यता को एक साथ कहने के लिए मेरी रसनासमूह को क्यों नहीं बनाया? चन्द्रमा आपके स्व और पर को प्रकाशित करने वाले ज्ञानतेज का स्पर्श भी नहीं करता है। इस प्रकार अनेक रूपों में सुमङ्गला ने भगवान् की स्तुति की। भगवान् की आज्ञा से वह अपने आवास पर आई और सखियों को अपने प्रिय के साथ हुई बातचीत से अवगत कराया। सखियों ने भगवान् की प्रशंसा की तथा सुमङ्गला के सौभाग्य को सराहा। सखियाँ अनेक प्रकार के प्रश्न पूछकर सुमङ्गला का मन बहलाने लगी। सुमङ्गला उन प्रश्नों का उत्तर बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से देने लगी। कुछ समय बाद सूर्य उदयोन्मुख हुआ।
एकादश सर्ग में ७० पद्य हैं । सर्ग का प्रारम्भ सूर्योदय के भव्य वर्णन से होता है। सुमङ्गला ने सूर्योदय होने पर मुँह धोया। सखियों के साथ जब वह बैठी हुई थी तो इन्द्र उसके सम्मुख आया। इन्द्र ने प्रथम तीर्थंकर की पत्नी होने के कारण उन्हें तीर्थ मानते हुए नमस्कार कर उनकी अनेकविध स्तुति (४)
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