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________________ उदीयमान सूर्य की किरणों से विकसित केसरवन के जैसे पृथ्वी दिखाई दे रही थी । मानो सुमंगला केसर का अंगविलेपन करवाने की इच्छा वाली हो वैसे शैय्या को छोड़ दिया। उसी समय कोई सखी पानी से भरी हुई चंद्रकांत मणि की झारी हाथ में लेकर सुमंगला के पास आई। सुमंगला के कोमल हाथ पर निर्मल जल की धारा को छोड़ती वह सखी मेघमाला समान दिखाई दे रही थी । सुमंगला रानी के मुख रूपी चंद्र की पानी ने संगति की इसी कारण जगत में विद्वानों ने उसका नाम 'अमृत' दिया । जिस दर्पण को प्रातः काल भस्म से साफ करते हुए कष्ट सहना पड़ा था उस दर्पण ने सुमंगला के मुख का स्पर्श करके स्वयं की प्रशंसा की । 1 समाधि से युक्त, समीप में आई सखियों द्वारा गाये गये गीत की कर्णप्रिय ध्वनि को सुनती हुई सुमंगला ने पास आये हुए इन्द्र को देखा । फिर श्री युगादीश्वर की वह पत्नी है, ऐसा सोच कर, उनको भी तीर्थ रूप मान कर नमस्कार करते हुए इन्द्र बोले- 'हे परिवार के प्रति मनोहर एवं सौम्य दृष्टि वाली ! हे स्त्री लक्षणों के भंडार की सृष्टि समान! हे महान स्त्री ! हे श्री ऋषभदेव प्रभु के शोभा से रमणीय हृदय रूपी पिंजरे में मैना समान सुमंगला! आप की जय हो ।' 'पर्वत में से उत्पन्न होने के कारण शिलारूप होने से पार्वती भी आपके साथ स्पर्धा करती जड़ हो गई। समुद्र में से उत्पन्न होने के कारण मछली रूप होने से लक्ष्मी भी आपकी शोभा को प्राप्त नहीं कर पाई । वृद्ध ब्रह्मा की पुत्री होने से जिसके साथ किसी ने भी विवाह नहीं किया एवं जिसको भाग्ययोग से निम्नगा ऐसा नाम मिला है और जो समुद्र में जाकर रहती है वह सरस्वती भी आपकी तुलना को नहीं पा सकी। हे गौरी! कला, कुलाचार और सुरूपता की धारक ! आपके गुणों की स्तुति करूं इस योग्य मेरी वाणी नहीं है। कारण कि आपके गुण अगाध समुद्र के समान हैं। महासागर में डूब जाने वाली बकरी जैसे अपने आप तैर कर बाहर निकलने में समर्थ नहीं है वैसे मेरी वाणी भी आपके महासागर जैसे गुणों का संकीर्तन करने में समर्थ नहीं है।' " 'आप तीन लोक के स्वामी की पत्नी हो और आपने शास्त्रवेत्ताओं को भी सोचने योग्य ऐसे श्रेष्ठतम स्वप्न देखे हैं। अगर कदाचित् सूर्य पश्चिम दिशा में उदित हो अथवा मेरु पर्वत चलायमान हो जाए, कदाचित् समुद्र मर्यादा का उल्लंघन कर जाए, कदाचित् अग्नि शीतलता को प्राप्त करे, कदाचित् पृथ्वी अपनी सर्व सहनशीलता का त्याग कर पाताल के अतिथि रूप को प्राप्त करे फिर भी हे सुमंगला! आपके स्वामी का वचन कभी भी विपरीत नहीं होता है। फिर हे देवी! श्री ऋषभदेव प्रभु की मुनीन्द्रों को भी मननीय ऐसी वाणी को आप सत्य ही मानें तथा पूर्ण समय होने पर महान पुत्र रत्न को प्राप्त करें ।' कवि उसके बाद मालोपमा अलंकार द्वारा वर्णन करता है : सुवर्णगोत्रं वरमाश्रितासि, गर्भं सुपर्वागममुद्वहंती । श्रियं गता सौमनसीमसीमां, न हीयसे नंदनभूमिकायाः ॥ ११-३५॥ हे सुमंगला! आप उत्तम वर्ण के गोत्र वाले स्वामी के आश्रित हुई हैं, देवलोक से आये गर्भ को धारण करती हैं, उत्तम जनों की असीम शोभा को प्राप्त हुई हैं, इससे आप नंदनवन की भूमि से उतरने वाली पंक्ति तो नहीं हो । यहाँ कवि ने मालोपमा अलंकार द्वारा सुमंगला की नंदनवन के साथ तुलना की है। 'हे देवी! आपके इस पुत्र से आपका आत्मीय तेज बढ़ेगा। मैं भी उसी दिन से प्रार्थना करता हूँ [ जैन कुमारसम्भव: एक परिचय ] Jain Education International For Private & Personal Use Only (४३) www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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