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अर्थ
हे सीमन्तिनि ! तुम भाग्यवानों में सीमा हो, जो कि युगादीश्वर की हृदयङ्गमा हो । और बहुश्रुतों को विचार करने योग्य इस प्रकार के स्वप्नसमूह को तुमने देखा है। अतः परं किं तव भाग्यमीडे, यद्विश्वनेत्रा निशि लम्भितासि । स्वप्नार्थनिश्चायिकया स्ववाचा, रहः सुधापानसुखानि देवि ॥ २९ ॥
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अर्थ :- हे देवि ! तुम्हारे इससे भी अधिक क्या भाग्य की प्रशंसा करें, जो कि जगन्नाथ ने रात्रि में स्वप्न के अर्थ का निश्चय कराने वाली अपनी वाणी से एकान्त में अमृत के पान के समान सुख को प्राप्त कराया है।
अर्थ :अर्थिनी तुम्हें गोरसपान ( सरस्वती रसपान ) कराते हुए श्री ऋषभस्वामी ने रात्रि को भी चित्त में धारण नहीं किया। क्योंकि अर्हन्त भगवान् की आज्ञा, (रूप उपदेश ) " क्षुधा से आतुर व्यक्तियों को भोज कराने में दोष नहीं है", यह है । विशेष :• यहाँ तत्त्वोपदेश रूप भोजन जानना चाहिए, अशन, पान नहीं। गोरस शब्द से सरस्वती रस जानना चाहिए ।
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न पाययन् गोरसमर्थिनीं त्वां धत्ते स्म चित्ते रजनीमपीशः । क्षुधातुरं भोजयतां न दोषा, दोषापि यस्मादियमर्हदाज्ञा ॥ ३० ॥
कदाचिदुद्गच्छति पश्चिमायां, सूरः सुमेरुः परिवर्तते वा । सीमानमत्येति कदापि वार्धिः, शैत्यं समास्कन्दति वाश्रयाशः ॥ ३१ ॥ सर्वसहत्वं वसुधाऽवधूय श्वभ्रातिथित्वं भजते कदाचित् । रम्भोरु दम्भोरगगारुडं ते, वचो विपर्यस्यति न प्रियस्य ॥ ३२ ॥ अर्थ : हे कल्याणि ! कदाचित् सूर्य पश्चिम दिशा में निकले, कभी सुमेरु अपने स्थान से चलायमान हो, कभी समुद्र मर्यादा का उल्लंघन करे, कभी अग्नि शीतल हो जाए, कदाचित् पृथ्वी सब कुछ सहन करने को छोड़कर पाताल के अतिथिपने का सेवन करे, फिर भी हे कदली के समान जंघाओं वाली ! तुम्हारे प्रिय श्री युगादीश का माया रूप सूर्य के लिए गारुडमंत्र के समान वचन विपरीत रूप में परिणमित नहीं होता है ।
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(१६४)
यथातथामस्य मनुष्ववाचं, वाचंयमानामपि माननीयाम् ।
पूर्णेऽवधौ प्राप्स्यसि देवि सुनुं, स्वं विद्धि नूनं सुकृतैरनूनम् ॥ ३३ ॥
अर्थ :- हे देवि ! तुम भगवान् की सत्य, व्यक्तियों की मान्य वाणी को जानो । हे देवि ! तुम अवधि पूर्ण होने पर पुत्र प्राप्त करोगी । तुम निश्चित रूप से अपने को पुण्यों से सम्पूर्ण जानो ।
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[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ११ ]
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