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परिच्छदाप्यायक सौम्यदृष्टे, मृगेक्षणालक्षणकोशसृष्टे । जयैकपत्नीश्वरि विश्वनाथ, श्रीमञ्जुहृत्पञ्जरसारिकेत्वम् ॥ २३ ॥
अर्थ :हे परिवारजनों पर मनोहर शान्त दृष्टि रखने वाली ! हे मृगनयनी स्त्रियों के लक्षण रूप भण्डार की सृष्टि ! हे एकपलीश्वरि ! हे आदिनाथ की लक्ष्मी के मनोहर हृदय रूप पिंजड़े की मैना ! तुम जयशील हो ।
जाता महीधादिति या शिला सा, त्वां स्पर्धमानास्तु जडा मृडानी । अम्भोधिलब्धप्रभवेति मत्सी, न श्रीरपि श्रीलवमश्नुते ते ॥ २४ ॥
अर्थ :- वह पार्वती तुमसे स्पर्द्धा करती हुई जड़ होवे जो पर्वत से उत्पन्न हुई है, अतः शिला है । लक्ष्मी भी तुम्हारे अंश को भी प्राप्त नहीं करती है । वह समुद्र से उत्पन्न है अतः मछली के तुल्य है ।
केनापि नोढा स्थविराङ्गजेति, या निम्नगाख्यामपि कर्मणाप्ता ।
पपात पत्यौ पयसां पिपर्ति, कथं सरस्वत्यपि सा तुलां ते ॥ २५ ॥ अर्थ :जो बूढ़े ब्रह्मा की पुत्री है, अतः उसे किसी ने विवाहा नहीं है, जो कर्म से (सरस्वती) नदी नाम को प्राप्त करती हुई समुद्र में गिर गयी। वह सरस्वती भी तुम्हारी समता को कैसे प्राप्त करती है ?
या स्वर्वधूः काचन काञ्चनाङ्गी, तुलां त्वयारोढुमियेष मूढा । असारतां किं विबुधैर्विचार्य, रम्भेति तस्या अभिधाव्यधायि ॥ २६ ॥
अर्थ :जिसे सुवर्ण शरीरा किसी देवाङ्गना ने मूढ़ होकर तुम्हारी समता को प्राप्त करने की इच्छा की, विद्वानों ने (अथवा देवों ने) असारता विचार कर उसका क्या रम्भा यह नाम रख दिया।
विशेष :- रम्भा का अर्थ कदली होता है, कदली मध्य में साररहित होती है ।
कलाकुलाचारसुरूपताद्यं, यं तावकं गौरि गुणं गृणीमः ।
मञ्जामहाब्धाविव तत्र मग्ना, वाग् न स्वमुद्धर्तुमधीश्वरी नः ॥ २७ ॥
अर्थ :- हे गौरी! हम तुम्हारे कला, कुलाचार तथा सुरूपतादि गुणों के विषय में कहते हैं। उन गुणों में मग्न हमारी वाणी अपने को निकालने में समर्थ नहीं है । जिस प्रकार बकरी महासमुद्र में डूबने पर अपने आपको निकालने में समर्थ नहीं होती है।
सीमासि सीमन्तिनि भाग्यवत्सु, यल्लोकभर्तुर्हृदयङ्गमासि । यच्चेदृशं स्वप्नसमूहमूह - क्षमं श्रुताधेयधियामपश्यः ॥ २८ ॥
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग- ११ ]
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