________________
अर्थ
पानी ने दम्भ को छोड़ी हुई रानी सुमङ्गला के मुखचन्द्र का सम्पर्क किया उस कारण पानी कर्मशील विद्वानों के द्वारा संसार में कृतामृत नाम वाली जीवनता को प्राप्त
हो गया ।
यदम्भसा दम्भसमुज्झिताया, राज्ञ्या मुखेन्दोर्विहितोऽनुषङ्गः । कृतामृताख्यं कृतकर्मभिस्त - ज्जगत्सु तज्जीवनतां जगाम ॥ १७ ॥
:
मुखं परिक्षालनलग्नवारि लवं चलच्चञ्चलनेत्रभृङ्गम् । प्रातः प्रबुद्धं परितः प्रसक्ता वश्यायमस्या जलजं जिगाय ॥ १८ ॥ अर्थ :- सुमङ्गला के, परिक्षालन से जिसमें जल कण लगे हुए हैं तथा चलते हुए चञ्चल नेत्र रूपी भौरों से जो युक्त है ऐसे मुख ने प्रातः काल विकसित, चारों ओर, जिसके ओस लगी है ऐसे कमल को जीत लिया।
निशावशाद्भूषणजालमस्या, विसंस्थलं सुष्ठ निवेशयन्ती ।
काप्युज्झितं लक्षणवीक्षणस्य, क्षणे करं दक्षिणमन्वनैषीत् ॥ १९ ॥ अर्थ :रात्रि के वश सुमङ्गला के चंचल भूषणसमूह को भली प्रकार धारण करती हुई किसी सखी ने इसके लक्षण देखने के समय छोड़े गए दायें हाथ को मनाया।
यं दर्पणो भस्मभरोपरागं, प्रगेऽन्वभूत् कष्टधिया प्रदिष्ठः ।
तदा तदास्यप्रतिमामुपास्य, सखीकरस्थः प्रशशंस तं सः ॥ २० ॥
अर्थ :- दर्पण ने प्रात:काल कष्टबुद्धि से जिस भस्म समूह के लालरंग को सुकुमारतर अनुभव किया था, उस अवसर पर दर्पण ने सखी के हाथ में स्थित, सुमङ्गला के मुख के प्रतिबिम्ब की सेवा कर उस भस्मसमूह के लाल रंग की प्रशंसा की ।
(१६२)
समाहिता
संनिहितालिपालि-प्रणीतगीतध्वनिदत्तकर्णा ।
उपस्थितं सा सहसा पुरस्ता - दक्षा ऋभुक्षाणमथालुलोके ॥ २१ ॥
अर्थ :- समाधियुक्त समीपस्थ सखियों की श्रेणी के द्वारा की गई ध्वनि पर जिसने कान लगाए थे ऐसी उस चतुर सुमङ्गला ने इन्द्र को शीघ्र ही आगे उपस्थित देखा ।
युगादिभर्तुर्दयितेति तीर्थं तां मन्यमानः शतमन्युरूचे ।
नत्वाञ्जलेर्योजनया द्विनाल - नालीककोशभ्रममादधानः ॥ २२॥
अर्थ :अञ्जलि की योजना से दो नाल वाले कोश की भ्रांति को धारण करते हुए इन्द्र ने युग के आदि स्वामी की पत्नी सुनन्दा को तीर्थ मानते हुए नमस्कार कर
कहा ।
Jain Education International
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ११]
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org