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विशेष :- हृदय दृढ़ होता है, उससे उत्पन्न हर्ष भी दृढ़ होने स उसके मूर्छा कैसे हो सकती है? अमृत रस का पान करने वाली देवाङ्गनाओं से उत्पन्न धवलगान भी अमृतमय होते हैं, उनसे भी हर्ष मूर्च्छित नहीं होना चाहिए, फिर मूर्छा कैसे हुई? यह कौतुक है । यहाँ मुमूर्च्छ का अर्थ वृद्धि को प्राप्त होना है।
देवों का फल भक्षण करना, अमृतपान करना यहाँ लोकरूढ़ि से जानना चाहिए, अन्यथा देवों के तो कवलाहार का निषेध है।
हरौ पदातित्वमिते जगत्त्रयी-पतौ सितेभोपगते सुरैः क्षणम्।
किमेष एव धुसदीशितेत्यहो, वितर्कितं च क्षमितं च तत्क्षणम्॥४४॥ अर्थ :- इन्द्र के पदातिपने को प्राप्त होने पर तीनों लोकों के स्वामी ऋषभदेव के श्वेत हाथी (ऐरावत) पर आरूढ़ होने पर देवों ने आश्चर्य है कि क्षण भर इस प्रकार विचार किया कि - क्या यही इन्द्र है? पुनः तत्क्षण देवों ने इन्द्र से क्षमा कराया।
समग्रवाग्वैभवघस्मरः स्मर-ध्वजवजस्यध्वनिरम्बराध्वनि।
अवाप्तमूर्छः स्वयमस्तु मूर्च्छितं, क्षमः किमुजीवयितुं प्रभौ स्मरम्॥४५॥ अर्थ :- वादित्र समूह की सर्ववचनविलास भक्षक ध्वनि आकाश व मार्ग में स्वयं ऋषभदेव के मूर्छा को प्राप्त होने पर मूर्च्छित कामदेव को प्राबल्य से जीवित करने में क्या समर्थ होगी? अपितु नहीं।
सुपर्वगन्धर्वगणाद्गुणावली, पिबन्निजामेव न सोऽतुषत्तराम्। ___अभूत्पुनर्व्यड्मुख एव दोष्मतां, त्रपा स्वकोशे परहस्तगे न किम्॥४६॥ अर्थ :- वे भगवान् देव तथा गन्धर्व समूह से अपने गुणों के समूह का पान करने पर अत्यधिक सन्तुष्ट नहीं हुए, पुनः अधोमुख ही हुए। बलवानों के अपना भण्डार दूसरे के हाथ में चले जाने पर क्या लज्जा नहीं होती है? अर्थात् लजा होती ही है। विशेष :- स्वकीय सारभूत गुण यदि परहस्तगत होते हैं तो लज्जा कैसे नहीं होगी? यह । कवि का अभिप्राय है।
मुदश्रुधारानिकरैर्घनायिते, द्युसच्चये काञ्चनरोचिरुर्वशी।
प्रणीतनृत्याकरणैरपप्रथ-त्तडिल्लताविभ्रममभ्रमण्डले ॥ ४७॥ अर्थ :- स्वर्ण के समान आभा वाला शारीरिक अवयवों से नृत्य करते हुए देवताओं के समूह पर हर्ष के आँसुओं के समूह से मेघ के समान आचरण करने वाली उर्वशी ने आकाश मण्डल में विद्युल्लता के विभ्रम का विस्तार कर दिया था।
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[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-४]
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