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________________ विलग्नदेशस्तनुरुन्नतस्तन-द्वयातिभारव्यथितोऽस्य भाजि मा। घनांगहारौघविघूर्णितं वपु-विलोक्यराम्भं त्रिदृशा इदं जगुः॥४८॥ अर्थ :- देवों ने रंभा के उस शरीर को बहुत से अङ्गहारों के विक्षेपों के समूह से घुमाया हुआ देखकर यह कहा - इसके शरीर का उदर प्रदेश कृश होकर उन्नत स्तनद्वय के अत्यन्त भार से पीड़ित होकर न टूटे। प्रकाशमुक्तास्रगसंकुचत्स्तन-द्वयं घृताच्यानटने निरीक्ष्य कः। कृती न कुम्भावतिगूढमौक्तिका-बभर्त्सयजम्भनिशुम्भिकुम्भिनः॥४९॥ अर्थ :- किस कुशल ने देवनर्तकी के नृत्य में प्रकट में मोतियों की मणिमाला से संकुचित न होते हुए स्तनद्वय को देखकर इन्द्र के हाथी के अत्यन्त गूढ़ मोतियों वाले दो गण्डस्थलों की निन्दा नहीं की, अपितु सबने की। तिलोत्तमा निर्जरपुञ्जरञ्जनार्थिनी कलाकेलीगृहं ननर्त यत्। सुरैस्तदङ्गद्युतिरुद्धदृष्टिभिः, प्रभूबभूवे तदवेक्षणेऽपि न॥५०॥ अर्थ :- देवसमूह के रंजायमान करने की इच्छुक कला की क्रीडा गृह स्वरूप तिलोत्तमा ने जो नृत्य किया, उसके अङ्ग की युति से रुकी हुई दृष्टि से देव उसके नृत्य के अवलोकन में भी समर्थ नहीं हुए। अचालिषुः केऽपि पदातयः प्रभोः, पुरोविकोशीकृतशस्त्रपाणयः। अमूमुहत्किं विबुधानपि भ्रमः, सजन्ययात्रेत्यभिधासमुद्भवः॥५१॥ अर्थ :- कोशरहित किए हुए शस्त्र जिनके हाथ में है ऐसे कोई देव स्वामी के आगे चले। उस विवाह यात्रा (अथवा संग्राम यात्रा) से उत्पन्न भ्रम ने क्या देवों को भी मोहित कर दिया? विशेष :- यहाँ किम् शब्द संशयार्थक है : प्रसिद्ध एकः किल मङ्गलाख्यया, ग्रहाः परेऽष्टावपि मङ्गलाय ते। इतीरयन्तीव सुरैः करे धृता, पुरोगतामस्य गताष्टमङ्गली॥ ५२॥ अर्थ :- देवों के द्वारा हाथ में धारण किए गए दर्पण, भद्रासन, वर्द्धमान, वरकलश, मच्छ, श्रीवत्स, स्वस्तिक तथा नन्द्यावर्त अष्टमङ्गल निश्चित रूप से मङ्गल नामक एक ग्रह तो प्रसिद्ध है, दूसरे आदित्य आदि अन्य ग्रह आपके मङ्गल के लिए होवें मानों ऐसा कहते हुए इन भगवान् के आगे प्राप्त हुए। प्रबुद्धपद्मानननादिषट्पदा, उदारवृत्ताः सुरसार्थतोषिणः। पुरोऽस्य कल्याणगिरि स्थिता स्तुति-व्रतादधु कतटाकसौहृदम्॥५३॥ [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-४] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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