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________________ अर्थ :- खिले हुए कमलों के समान मुखों पर शब्द करने वाले जिनक छन्द विशेष हैं, उदार जिनके कवित्व है, जो देव समूह को हर्षित करने वाले हैं तथा जो शुभवाणी में स्थित है ऐसे भाट लोगों ने इन भगवान् के सामने स्व के सरे रों के सादृश्य को धारण किया। स्वर्ग के सरोवर कैसे हैं? - जिनमें विकसित कमल हैं, जिन पर भौरे गुंजार न करते हैं, ऐसे नहीं है, अपितु जिन पर भौरे गुंजार करते हैं तथा वे देव समूह को सन्तुष्ट करते हैं एवं मेरु पर्वत पर स्थित हैं। अभर्मभृत्यश्चलितेऽर्हतिप्रभाः, प्रभाकरः स्वा विनियुक्तवांस्तथा। यथा वृथाभावमवाप नो दिवा, न तापमापत्सत जान्यिका अपि॥५४॥ अर्थ :- मजदूरी के बिना सेवक सूर्य ने भगवान् ऋषभदेव के चलने पर अपनी प्रभा को उस प्रकार व्यापारित किया कि जिस प्रकार दिन ने वृथाभाव को प्राप्त नहीं किया। साधारण जनों ने भी ताप को प्राप्त नहीं किया। तथा प्रसन्नत्वमभाजि मार्गगे, जगत्रयत्नातरि मातरिश्वना। . यथा दृगान्ध्यं न रजस्तनूमतां, चकार घर्माम्बु च चिक्लिदं वपुः॥५५॥ अर्थ :- वायु ने तीनों लोकों के रक्षक के मार्ग में जाने पर उस प्रकार प्रसन्नता प्राप्त की जिस प्रकार धुलि ने प्राणियों के नेत्रों में अन्धकार नहीं किया और पसीने ने शरीर को मैला नहीं किया। क्वचिनिषिक्ता द्विरदैर्मदाम्बुभिः, क्वचित्खुरैरुद्धतरेणुरर्वताम्। धुसत्किरीटैः क्वचिदापिता मह-स्तमश्च नीलातपवारणैः क्वचित्॥५६॥ क्वचित्खगानां न पदापि सङ्गता, क्वचिद्रथैः क्षुण्णतलारि धारया। समाशया स्वं क्षितिरक्षतं जगौ, जगत्सुमाध्यस्थ्यगुणं जगत्प्रभोः॥५७॥ अर्थ :- कहीं हाथियों के द्वारा मदजलों से सींची गई, कहीं घोड़ों के खुरों से उठी धूलि, कहीं देवों के मुकुटों का तेज प्राप्त और कहीं काले छत्रों से अन्धकार को प्राप्त , कहीं विद्याधरों के चरण से भी न मिलित, कहीं रथों की वक्र धारा से खोदे गए तल वाली समाभिप्राय पृथिवी स्वर्ग और पाताल के मध्य में स्थित होने से माध्यस्थ्य गुण को अपने जगत्प्रभु से सम्पूर्ण रूप से कह रही थी। कृपापयः पुष्करिणीं दृशं न्यधा-दसौ स्वभावादपि यत्र नाकिनि। स बाढमौष्मायत देवसंहतो, मयि प्रसादाधिकता प्रभोरिति॥५८॥ अर्थ :- भगवान् ने जिस देव में स्वभाव से भी कृपाजल रूप वापी को दृष्टि में रखा उस देव ने देव समूह में इस प्रकार अत्यधिक गर्व धारण किया कि प्रभु की मेरे प्रति कृपा अधिक है। (६२) [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-४] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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