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विचित्र वाद्यध्वनिगर्जितोर्जितः, यथा यथासीददसौ गुणैर्घनः।
तथा तथा नन्दवने सुमङ्गला-सुनन्दयोरब्दसखायितं हृदा ॥ ५९॥ अर्थ :- गुणों से घने (अथवा मेघ) वह भगवान् विचित्र वाद्यों की ध्वनि रूप गर्जनाओं से बलवान् होते हुए जैसे-जैसे समीप आए वैसे-वैसे सुमङ्गला और सुनन्दा के हृदयों ने मयूर के समान आचरण किया।
तदाऽन्यबालावदुपेयिवत्प्रभो-र्दिदृक्षयोत्यिञ्जलचित्तयोस्तयोः।
शचीनियुक्तस्वसखीनियंत्रणा, बहिर्विहारेऽभवदर्गलायसी॥ ६०॥ अर्थ :- उस अवसर पर सुमङ्गला और सुनन्दा के आगत स्वामी को देखने की इच्छा से आकुल मन होने पर बाहर निकलने में इन्द्राणी के द्वारा नियुक्त सखियों का रोकना लोकमयी अर्गला हुई।
कलागुरुः स्वस्य गतौ यथाशयं, समुह्यमान पुरुहूतदन्तिना।
मुखं मुखश्रीमुखितेन्दुमण्डलः, स मण्डपस्याप दुरापदर्शनः॥६१॥ अर्थ :- इन्द्र के हाथी ऐरावत के द्वारा अभिप्राय के अनुसार धारण किए हुए, अपनी गति में कलाचार्य, मुख की शोभा से जिसने चन्द्रमण्डल को पराजित किया है तथा जिनका दर्शन दुर्लभ है ऐसे भगवान् मण्डप के अग्रभाग को प्राप्त हुए।'
अथावतीर्येभविभोः ससंभ्रमं, प्रदत्तबाहुः पविपाणिना प्रभुः।
मुहूर्तमालंब्य तमेव तस्थिवान्, श्रियः स्थिरस्येति वचः स्मरन्निव॥६२॥ अर्थ :- अनन्तर श्री ऋषभदेव वज्रबाहु इन्द्र के द्वारा जिसे भुजा दी गई है ऐसे ऐरावत से उतर कर इन्द्र का ही सहारा लेकर स्थिर की लक्ष्मी होती है, इस प्रकार के वचन का मानों स्मरण करते हुए स्थित हुए।
न दिव्ययाऽरञ्जि स रम्भया प्रभु-हरेर्नटैः शिक्षितनृत्यया तथा।
नभस्वता नर्तितयाग्रतोरण-स्थया यथाऽरण्यनिवासया तथा॥६३॥ अर्थ :- इन्द्र के नटों से, शिक्षित नृत्य वायु से नर्तित अग्र तोरण में स्थित अरण्यनिवासिनी कदली से जैसे प्रभुरञ्जायमान हुए वैसे दिव्य रम्भा से रञ्जायमान नहीं हुए।
समानय स्थालमुरुस्तनस्थले, निधेहि दूर्वां दधि चात्र चित्रिणि। सुलोचने सञ्चिनु चन्द्रनद्रवं शरावयुग्मं धर बुद्धिबन्धुरे ॥ ६४॥ गृहाण मन्थं गतिमन्थरे युगं, जगजनेष्ट मुशलं च पेशले। क्षणः समासीदति लग्नलक्षणः, कियच्चिरं द्वारि वरोऽवतिष्ठताम्॥६५॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-४]
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