SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इहोग्रशस्त्रे कुसुमव्रजे निजे, जनोष्मणा म्लानिमुपागते हलाः । महाबलेनापि मनोभुवा भवां-तकोऽत्र देवे प्रभविष्यते कथम् ॥ ६६॥ घनत्वमापद्य मरुन्न चन्दन - द्रवस्य पुष्णानि किमेष सौरभम् । उलूलपूर्वाय वरार्घकर्मणे, विमुच्यतां तत्करकण्ठकुण्ठताम् ॥ ६७॥ इतीरयन्तीष्वितरेतरांद्युस - द्वधूषु काचित्करपाटवाञ्चिता । विलोलकौसुम्भनिचोलशालिनी, प्रभातसंध्येव समग्रकर्मणाम् ॥ ६८ ॥ मणिमयस्थालधृतार्घसाधना, वशोचिताया न वशंवदा हियः । वराभिमुख्यं भजति स्म सस्मया, न कोऽथवा स्वेवसरे प्रभूयते ॥ ६९ ॥ षड्भिः कुलकम्॥ + अर्थ हे विस्तीर्ण स्तन स्थल से युक्त ! तुम थाल लाओ। (चक्र के समान दाँत, स्तनों की समानता, मधुगंध एवं चक्रकेश होने के कारण) हे आश्चर्यकारिणी ! यहाँ थाली में दूर्वा और दही रखो । हे सुलोचना चन्दन द्रव का संचय करो। हे बुद्धि से मनोज्ञ ! तुम सकोरे का युगल धरो । हे अलसगति ! तुम मथानी पकड़ो। हे समस्त लोगों की अभीष्ट ! तुम पासे के खेल की दो गोटियाँ पकड़ो। हे सुन्दरी ! तुम मुशल ग्रहण करो, लग्न का समय समीपवर्ती है। वर द्वार पर कब तक खड़ा रहेगा । हे सखियो ! इस संसार में अपने फूलों के समूह रूप उग्र शस्त्र, लोगों की उष्मा से मुरझाने पर महान् बलशाली भी कामदेव इन यम को भी जीतने वाले देव पर कैसे समर्थ होगा ? यह वायु चन्दन के द्रव की दृढ़ता को प्राप्त कर क्या सुगन्धि को नहीं चुरा रहा है ? अपितु चुरा ही रहा है । इस कारण धवलध्वनि पूर्वक वरपूजा के कार्य के लिए हाथ और कण्ठ के शब्द की कुंठता को छोड़ दो, देवाङ्गनाओं के इस प्रकार परस्पर कहे जाने पर हस्तलाघव से युक्त, केसरिया रङ्ग के चंचल प्रच्छद पर (दुपट्टे) से शोभायमान समग्र कर्मों की मानों प्रभात सन्ध्या हो, मणिमय थालों में जिसने पूजा की सामग्री रखी हुई है, जो स्त्रियोचित्त लज्जा के वशीभूत नहीं है, ऐसी कोई सगर्वा स्त्री वर के सम्मुखपने का सेवन कर रही थी अथवा अपने अवसर पर कौन समर्थ नहीं होता है ? सभी समर्थ होते हैं । जगद्वरेऽत्रार्धमुपाहरद्वरे, यथेक्षिता सा हरिणा सकौतुकम् । स्त्रियोंऽतिकस्था धवलैस्तथा जगुः क्वचिद्भवद्विस्मृतिशंकया किमु ॥ ७० ॥ , अर्थ इन्द्र के द्वारा कौतुकपूर्वक देखी गई देवाङ्गना संसार में श्रेष्ठ (वर) के लिए अर्घ ले आयी। समीपस्थ स्त्रियाँ धवलगृहों से वैसा गा रही थीं। क्या क्वचित् आपको भूलने की शङ्का से गा रही थीं? (६४) -: Jain Education International [ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ४ ] www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy