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स पस्पृशे हृद्यपि दुर्लभे पर-स्त्रिया तया छेकधिया कृतस्मितम्। .
अमुं कथंचिद्दधिबिन्दुमर्घत-श्चयुतं विनच्मीति गृहीतदम्भया॥ ७१॥ अर्थ :- चतुर बुद्धि वाली उस देवाङ्गना से कृतस्मित वे भगवान् दुर्लभ परस्त्री के द्वारा अर्घ से च्युत इस दधिबिन्दु को कथंचित् पृथक् करता हूँ, इस प्रकार हृदय में भी स्पर्श किए गए।
अपि प्रवृत्तार्घविधिर्वधूद्वयी-दिदृक्षया नोदमनायत प्रभुः।
समाधिनिौतधियां न तादृशां, स्वभावभेदे विषयाः प्रभुष्णवः॥७२॥ अर्थ :- स्वामी अर्धविधि के प्रयुक्त होने पर भी सुमङ्गला और सुनन्दा रूप वधूद्वयी को देखने की इच्छा से उत्सुक नहीं हुए। सन्तोषादि समाधि से जिनकी बुद्धि धोयी गई है, उन जैसों के स्वभावभेद में विषय समर्थ नहीं होते हैं।
तदीयलावण्यरुचोरिवर्णीया, शरावयुग्मं लवणाग्निगर्भितम्।
पुरो विमुक्तं सुदृशाम्रदिष्ट सोऽनलोच्छ्वसत्पर्पटलीलयांहिणा॥७३॥ अर्थ :- उन भगवान् ने स्त्रियों के आगे विमुक्त अपने लावण्य और कान्ति की ईर्ष्या से मानों जो लवण और अग्नि से सहित था ऐसे सकोरे के युगल को वायु के द्वारा उड़ाए जाते हुए वस्त्र की लीला से चरण से मर्दित किया। - प्रगृह्य कौसुम्भसिचा गलेऽबला, बलात्कृषन्त्येनमनैष्ट मण्डपम्।
अवाप्तवारा प्रकृतिर्यथेच्छया, भवार्णवं चेतनमप्यधीश्वरम्॥ ७४॥. अर्थ :- चेतन भी अधीश्वर को जिस प्रकार प्राप्तावसरा प्रकृति अपनी इच्छानुसार संसार समुद्र में ले जाती है, उसी प्रकार स्त्री इन भगवान् को केसरिया वस्त्र गले में . डालकर बलात् खींचती हुई मण्डप में ले गयी।
शतमखस्तमखण्डितपौरुषं, सपदि मातृगृहे विहितांग्रहः।
अभिनिषण्णवरेन्दुमुखीद्वयं, जिनवरं नवरङ्गभृदासयत्॥ ७५॥ .. अर्थ :- नवीन हर्ष रूप रङ्ग को धारण करने वाले इन्द्र ने कृताग्रह होकर अखण्डित पौरुष वाले जिनवर को शीघ्र ही मातृगृह में पहले से बैठी हुई श्रेष्ठ इन्दुमुखीद्वय (दो चन्द्रमुखियों) के सम्मुख बैठाया।
दृष्ट्वाऽऽयान्तं नोदतिष्ठाव नाथं, नाथ स्वास्याविष्कृतिः संगता नौ।
ध्यात्वेतीव स्वामिनोऽभ्यर्णभावे, ते नीरंगीगोपितास्ये अभूताम्॥७६ ॥ अर्थ :- अनन्तर वे सुमङ्गला और सुनन्दा हम दोनों नाथ को आते हुए देखकर खड़ी नहीं हुई, हम दोनों को अपने मुख का प्रकटीकरण युक्त नहीं है, मानों ऐसा ध्यान करके ही स्वामी के समीप नीरंगी से मुख को छिपाने वाली हो गईं। [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-४]
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