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लावण्यवारिसरसो दयितादमुष्मात्, पातुं प्रकाशमनलं नयनद्वयं नौ।
पानेन तृप्तिरिह चौरिकया न काचि-देवं मिथोऽकथयतामपृथुस्वरं ते॥७७॥ अर्थ :- वे दोनों कन्यायें मन्द स्वर में आपस में, इन भर्ता रूप सरोवर के सौन्दर्य रूप जल को पीने में हमारे दोनों नेत्र समर्थ नहीं हैं, इस संसार में चोरी से पान करने में किसी प्रकार की तृप्ति नहीं है, इस प्रकार कह रही थीं।
शैशवावधि वधूद्वयदृष्टयो-श्चापलं यदभवदुरपोहम्।
तत्समग्रमुपभर्तृर्विलिल्ये-ऽध्यापकान्तिक इवान्तिषदीयम् ॥ ७८॥ अर्थ :- दोनों वधुओं के नेत्रों की शैशव से लेकर जो चञ्चलता दुस्त्यज हुई, वह छात्र की चपलता जिस प्रकार अध्यापक के समीप विलीन हो जाती है, उसी प्रकार पति के समीप में विलय हो गई।
तारुण्येन प्रतिपतिमुखं प्रेरितोन्मादभाजा, बाल्येनेषत्परिचयजुषा जिह्मतां नीयमाना। दृष्टिर्वध्वोः समजनितरामेहिरेयाहिरातः,
श्रान्तेः पात्रं न हि सुखकरः सीमसन्धौ निवासः॥७९॥ अर्थ :- उन्माद का सेवन करने वाले यौवन से पतिमुख के प्रति प्रेरित कुछ परिचय से युक्त बाल्यावस्था से मन्दता को ले जायी गई वधु की दृष्टि ने आगमन से श्रम के स्थान को उत्पन्न किया; क्योंकि सीमा की संधि में निवास सुखकर नहीं होता है।
जैनी सेवां यो निर्भरं निर्मिमीते, भोगाद्योगाद्वा तस्य वश्यैव सिद्धिः। हस्तालेपे त्वक्तं सिषेवे ययोः श्री-वृक्षोऽभूदेकोऽन्यस्तयोः किं शमी न॥८०॥ अर्थ :- जो पुरुष जैनी सेवा को अत्यधिक करता है, उसकी भोग अथवा योग से सिद्धि वश में ही है। जिन दो वृक्षों की छाल हस्त के आलेप में जिन की सेवा करती थी उनके मध्य में एक वृक्ष लक्ष्मी का (अथवा पिप्पल) वृक्ष हुआ, अन्य क्या शमी नहीं हुआ? अपितु हुआ। विशेष :- इससे श्री वृक्ष भोगी जानना चाहिए। जिसके घर में लक्ष्मी होती है, वही भोगी होता है, इस न्याय से । शमी शमवात्, योगी जानना चाहिए। इस प्रकार जिन सेवा से भोग और योग दोनों की सिद्धि हुई, यह जानना चाहिए।
श्री वृक्ष कुंजराशन इत्यादि पीपल के नाम हैं। जो पाप का शमन करता है, वह । शमी है, ऐसा लोग कहते हैं।
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-४)
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