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________________ १०. दशमः सर्गः साथ नाथवदनारविन्दतो, वाङ्मरन्दमुपजीव्य निर्भरम् । उज्जगार मृदुमञ्जुलां गिरं, गौरवादिति सदालिवल्लभा ॥ १ ॥ अर्थ :- अनन्तर सदा सखियों की अभीष्टा (भ्रमरी के समान सुमङ्गला ने) श्री ऋषभ स्वामी के मुख कमल से वाणी रूपी मकरन्द को अत्यधिक पीकर गौरव से सुकुमार और मनोज्ञ वाणी में कहा । लब्धवर्णजनकर्णकर्णिका, वाञ्छितार्थफलसिद्धिवर्णिका । दीधितिर्धृतजडिनि पावकी, वाग् विभो जयति कापि तावकी ॥ २ ॥ अर्थ :- हे स्वामिन् कोई (अपूर्व) आपकी विद्वज्जनों की कर्णाभरण, वाञ्छित अर्थ के फल की सिद्धि का वर्णन करने वाली, घृत के समान जड, अग्नि सम्बन्धी कान्ति वाली वाणी जयशील होती है । रूपमीशसमकं दिदृक्षते, तावकं यदि सहस्रलोचनः । ईहते युगपदञ्चनं च ते चेत् सहस्रकर एव नापरः ॥ ३ ॥ , अर्थ हे ईश ! आपका रूप यदि समकाल में देखना चाहता है तो वह इन्द्र ही है, दूसरा नहीं । और यदि आपकी एक साथ पूजा करना चाहता है तो इन्द्र ही चाहता है, दूसरा नहीं । यो बिभर्ति रसनासहस्त्रकं, द्व्याहतत्वमधिरोप्य सोऽप्यलम् । देव वक्तुमखिलान ते गुणान्, मादृशः किमबलाजनः पुनः ॥ ४ ॥ अर्थ :- हे देव ! जो द्विगुणत्व का अधिरोपण कर हजार जीभ ( अर्थात् दो हजार जीभ) धारण करता है, वह शेषनाग आपके समस्त गुणों का कथन करने में समर्थ नहीं है, मुझ जैसी स्त्रीजन की तो बात ही क्या? धीधनोचित भवद्गुणस्तवान्, वारकेऽपि निजजाड्यचिन्तने । उच्यते किमपि नाथ यन्मया, भक्तितन्मयतयावधार्यताम् ॥ ५ ॥ [ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - १० ] Jain Education International For Private & Personal Use Only (१४१) www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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