SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वैडूर्यवर्यधुतिभाजि भूमौ-वितानलम्बी प्रतिबिम्बिताङ्गः। मुक्तागणो वारिधिवारिमध्य-निवासलीलां पुनराप यत्र ॥ ४३॥ .. अर्थ :- जिस मण्डप में श्रेष्ठ वैडूर्यमणि की द्युति को प्राप्त भूमि में प्रतिबिम्बित अङ्ग वाले चँदोवे पर विस्तार को प्राप्त मोतियों ने समुद्र के जल के मध्य निवास करने की लीला को प्राप्त किया। संदर्शितस्वस्तिकवास्तुमुक्ता-रदावलिः स्फाटिकभित्तिभाभिः। यद्भूरदूरप्रभुपादपाता, मुक्ता चिरात्ते न दिवं जहास॥ ४४॥ अर्थ :- जिसने स्वस्तिक स्थान रूप मोतियों के दाँत दिखलाए हैं, प्रभु का चरणनिक्षेप जिसके समीपवर्ती है ऐसी उन भगवान् के द्वारा चिरकाल से मुक्त जो मण्डप की भूमि स्फटिकमणिमय दीवालों की आभा से स्वर्ग लोक की हँसी उड़ाती थी। विश्वामविश्वासमयीमधीत्य, नीतिं यदौपाधिकपुष्पपुञ्जात्। सत्येऽपि पुष्पप्रकरे पतद्भि-रालम्बि रोलम्बगणैर्विलम्बः॥४५॥ अर्थ :- जिसके कृत्रिम पुष्पों के समूह से समग्र अविश्वास मयी नीति का अध्ययन कर भौरे गिरने वाले फूलों के समूह पर लटके।। जगजनो येन पुराखिलोऽपि, व्यलोपितं यत्र विकीर्णमन्तः। ममर्द पुष्पप्रकरापदेशं, पदैः स्मरेषुव्रजमेष युक्तम्॥ ४६॥ . अर्थ :- जिस कामदेव के बाणों के समूह द्वारा पहले समस्त संसार के लोग लुप्त कर दिए गए थे। इस जगज्जन ने फूलों के समूह के बहाने से उस कामदेव के बाणों के समूह को पैरों से मसल डाला, यह बात उचित ही है। यत्रादूतस्तम्भशिरोविभागा, बभासिरे काञ्चनशालभंज्यः। प्रागेव संन्यस्तभुवो भविष्य-जनौघसम्मर्दभियेव देव्यः॥४७॥ अर्थ :- जिस मण्डप में भाविजन समूह की भीड़ के भय से ही मानो पहले से ही जिसने भूमि को छोड़ दिया है, ऐसी देवाङ्गनाओं के समान जिन्होंने स्तम्भ के अग्रभाग का आदर किया है, ऐसी सुवर्णमयी पुत्तलिकायें (शालभञ्जिकायें) सुशोभित हो रही थीं। सुचारुगारुत्मततोरणानि, द्वाराणि चत्वारि बभुर्यदग्रे। देवीषु रुद्धाग्रपथासु रोषाद, भ्रूभङ्गभाञ्जीव दिशां मुखानि॥४८॥ अर्थ :- जिस मण्डप के अग्रभाग पर देवियों के द्वारा मार्ग का अग्रभाग रोके जाने पर [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३] (४३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy