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वैवाहिके कर्मणि विश्वभर्तु-र्यदादिदेश त्रिदशानृभुक्षाः।
बुभुक्षिताह्वानसमानमेत-दमानि तैः प्रागपि तन्मनोभिः॥ ३८॥ अर्थ :-- इन्द्र ने स्वामी के वैवाहिक कर्म में देवों को जिस कार्य का आदेश दिया था। उन देवों ने यह कार्य भूखों के आह्वान के समान माना। क्योंकि उनका मन पहले से ही उसके चित्त के अनुरूप था।
मनोभुवा कल्पनयैव जिष्णो-स्तत्र क्षणादाविरभावि शच्या।
तन्नाद्भुतं सा हृदये स्वभर्तु-नित्यं वसन्ती खलु वेद सर्वम् ॥ ३९॥ अर्थ :- इन्द्राणी उस स्थान पर इन्द्र की कल्पना मात्र से क्षण भर में प्रकट हो गई, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। वह अपने स्वामी के हृदय में नित्य रहती हुई निश्चित रूप से सब जानती थी।
स्वयं प्रभूपास्तिपरः शचीशः,शची शुचिप्राज्यपरिच्छदां सः।
न्यदिक्षतोपस्करणे कुमार्यो-र्नार्यो हि नारीष्वधिकारणीयाः॥ ४०॥ अर्थ :- स्वयं प्रभु की उपासना करने में तत्पर इन्द्र ने इन्द्राणी को सुमङ्गला और सुनन्दा कुमारियों के अलङ्करण का आदेश दिया। निश्चित रूप से नारियाँ नारियों पर अधिकार रखने के योग्य होती हैं। . विशेष :- नारियाँ नारियों पर अधिकार रखती हैं, इसके विषय में कहा गया है -
सदा प्रमाणं पुरुषा नृपांगणे रणे वणिज्येषु विचारकर्मसु । विवाहकर्मण्यथ-गेहकर्मणि प्रमाणभूमिं दधते पुनः स्त्रियः। तदाभियोग्या विबुधा वितेनुर्मणिर्मयं मण्डपमिन्द्रवाचा।
स्वं दास्यकर्मापि यशःसुगन्धि, पुण्यानुबन्धीत्यनुमोदमानाः॥४१॥ अर्थ :- उस अवसर पर अपने दास्य कर्म को भी यश की सुगन्धि रूप तथा पुण्य को बाँधने वाला मानकर अनुमोदन करने वाले अभियोग्य जाति के देवों ने इन्द्र की वाणी के अनुसार मणिमय मण्डप बनाया।
रत्नैः सयत्नं जनितैः स्वशक्त्या, तले यदीये त्रिदशैर्निबद्धे।
रत्नप्रभेत्यागमिकी निजाख्या-नया पृथिव्या न वृथा प्रपेदे॥४२॥ अर्थ :- जिस मण्डप के तले देवों द्वारा अपनी शक्ति से यत्नपूर्वक उत्पादित रत्नों से निबद्ध होकर इस साक्षात् दिखाई देती हुई पृथिवी ने रत्नप्रभा इस आगम सम्बन्धी अभिधान को व्यर्थ प्राप्त नहीं किया।
(४२)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३]
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