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रोष से उत्पादित भ्रकुटि संयुक्त दिशाओं के अग्रभाग के समान सुन्दर गरुड़मणि के । तोरणों से युक्त चार द्वार सुशोभित हो रहे थे।
अलम्भि यस्योपरि शातकुम्भ-कुम्भरनुद्भिनसरोरुहाभा।
नभःसरस्यां चपलैर्ध्वजौधैर्विसारिवैसारिणचारिमा च॥ ४९॥ अर्थ :- जिसके ऊपर सुवणे क कुम्भा ने आकाश रूपी सरोवर में अविकासत कमल की आभा और चंचल ध्वजाओं के समूह ने प्रसरणशील मत्स्य की शोभा को प्राप्त किया।
तथा कथाः पप्रथिरे सुरेभ्यस्त्रिविष्टपे तत्कमनायतायाः।
यथा यथार्थत्वमभाजि शोभा-भिमानभङ्गादखिलैर्विमानैः॥५०॥ अर्थ :- तीनों भुवनों में देवों के द्वारा मण्डप की मनोज्ञता की उस प्रकार कथा का विस्तार किया गया कि समस्त विमानों ने शोभा के अभिमान के भङ्ग से यथार्थपने को (निरभिमानिता को) प्राप्त किया।
श्रीदेवता हैमवतं वितन्द्रा, शच्याज्ञया चन्दनमानिनाय।
निनिन्द स स्वं मलयाचलस्तु, द्विजिह्वबन्दीकृतचन्दनदुः॥५१॥ अर्थ :- श्री नामक देवी आलस्य रहित होकर शची की आज्ञा से सुवर्णमयी चन्दन ले आयी। पुनः सर्पो (अथवा दुर्जन) के द्वारा जिसके चन्दन के वृक्ष बन्दी बना लिये गए हैं, ऐसे मलयपर्वत ने अपने आपकी निन्दा की। विशेष :- दुर्जन के हाथ में गयी हुई वस्तु का पवित्र अवसर पर व्यय करना सम्भव नहीं होता है।
उपाहरन्नन्दनपादपानां, पुष्योत्करं तत्र दिशां कुमार्यः।
शिरस्यपुष्पप्रकरस्य शेषै-वृक्षैर्वृथा वैवधिकी बभूवे॥५२॥ अर्थ :- उस मण्डप में दिक्कुमारियाँ नन्दनवृक्षों के पुष्प समूह को ले आयीं। चंपक, अशोक, पुन्नाग, प्रियंगु, पाटला, प्रभृति वृक्ष सिर के फूलों के समूह के व्यर्थ भारवाहक
हुए।
वध्वोरलंकारसहं सहर्षा, मणीगणं पूरयति स्म लक्ष्मीः।
वारांनिधेस्तद्धनिनश्चिरत्नो, रत्नोच्चयः फल्गुरभूच्चितोऽपि॥५३॥ अर्थ :- लक्ष्मी हर्षयुक्त होकर सुमङ्गला और सुनन्दा के अलङ्करण के समर्थ रत्नसमूह को पूरती थी। धनी (कृपण) समुद्र का चिरकाल से संचित रत्नों का समूह निष्फल हो गया।
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[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३]
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