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________________ मन्दाकिनी रोधसि रूढपूर्वा, दूर्वा वरार्थार्य समानिनाय। पराभिराभिर्नवरं जिजीवे, वालेयदन्तक्रकचार्तिहेतोः॥ ५४॥ अर्थ :- गंगानदी वर के लिए तट पर पहले से ही उगी हुई दूर्वा लायी। अन्य दूर्वाओं न केवल गधों के दाँत रूपी तलवार की पीड़ा के लिए जीवन धारण किया। कश्मीरवासा भगवत्यदत्त, काश्मीरमालेप्यमनाकुलैव। यत्रापि तत्रापि भवन हीदं, मद्देशनाम त्यजतीति बुद्धया ॥ ५५॥ अर्थ :- यह कुंकुम जहाँ कहीं विद्यमान रहता हुआ मेरे देश के नाम को नहीं त्यागता है, कश्मीर में रहने वाली सरस्वती ने आलेपन के योग्य कुंकुम को निश्चित रूप से इसी बुद्धि से आकुलता से रहित होकर दे दिया। करोषि तन्वङ्गि किमङ्गभङ्ग, त्वमर्धनिद्राभरबोधितेव। न सांप्रतं संप्रति तेऽलसत्वं, कल्याणि कार्पण्यमिवोत्सवान्तः॥५६॥ आलम्बितस्तम्भमवस्थितासि, बाले जरातेव किमेवमेव। अलक्ष्यमन्विष्यसि किं सलक्ष्ये, साधोः समाधिस्तिमितेव दृष्टिः॥५७॥ मनोरमे मुञ्चसि किं न लीला-मद्याप्यविद्यामिव साधुसङ्गे। इतस्ततः पश्यसि किं चलाक्षि, निध्यातयूनी पुरि पामरीव॥ ५८॥ भूपां वधव्यां द्रुतमानयध्वं, धृत्वा वरार्थं धवलान् ददध्वम्। शच्येरितानामिति निर्जरीणां, कोलाहलस्तत्र बभूव भूयान्॥ ५९॥ . चतुर्भिः कलापकम् अर्थ :- हे दुर्बल शरीर वाली! तुम अर्द्धनिद्रा के समूह से जाग्रत हुई सी अङ्गभङ्ग क्यों कर रही हो। हे कल्याणि! इस समय उत्सव के मध्य में कृपणता के समान तुम्हारे लिए आलस्यपना युक्त नहीं है । हे बाले ! वृद्धावस्था के कारण दुःखी हुई के समान स्तम्भ का सहारा लिए हुए यों ही क्यों ठहरी हुई हो? हे सलक्ष्ये! साधु की समाधि से निश्चल दृष्टि के समान अलक्ष्य को क्यों ढूँढ रही हो? हे मनोरमे! तुम (किसी) साधु के सङ्ग में अविद्या के समान लीला को नहीं छोड़ रही हो । हे चञ्चल आँखों वाली ! नगर में युवकों को ध्यान से देखती हुई ग्राम्या स्त्री के समान क्या देख रही हो? वधू के योग्य भूषा को शीघ्र ही लाओ। तुम सब वर के लिए धवल (वस्त्र अलङ्कार आदि) दो, इस प्रकार शची के द्वारा प्रेरित देवियों का उस मण्डप में अत्यधिक कोलाहल हुआ। अथालयः शैलभिदः प्रियायाः, संस्कर्तुकामा वसुधैकरत्ने। निवेश्य कन्ये कनकस्य पीठे, रत्नासनाख्यां ददुरस्य दक्षाः॥६०॥ (४५) (जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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