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________________ वल्लभा (पत्नी) है, पानी से (अथवा मूर्ख से) उत्पन्न हुए चन्द्र (अथवा विचक्षण) द्वेषी कमल का उसने आश्रय ले लिया। बभार भारती ख्याति, स्त्रीजातो विदुषी का। स्वभावभङ्गे न श्रेय, इति साऽभूदभर्तृका॥६७॥ अर्थ :- जिस सरस्वती ने स्त्री जाति में विदुषी है, इस प्रकार की ख्याति को धारण किया, अपनी सहज प्रकृति के त्याग में कल्याण नहीं है, इस कारण वह पतिरहित हो गयी। तजगद्गुरुरेवैत-द्विचारं कर्तुमर्हति। जात्यरत्नपरीक्षायां, बालाः किमधिकारिणः॥६८॥ अर्थ :- अतः जगद्गुरु ही इन स्वप्नों का विचार करने के योग्य है। नवीन रत्नों की परीक्षा करने में क्या बालक अधिकारी हो सकते हैं? अपितु नहीं हो सकते हैं। अथालसलसद्बाहु-लता तल्पं मुमोच सा। सौषुप्तिकैरिव प्रीय-माणा क्वणितभूषणैः॥ ६९॥ अर्थ :- अनन्तर आलस्य से, जिसकी बाहुलता सुशोभित हो रही थी, शब्द करते हुए आभूषणों से मानों भली प्रकार से सोने वालों से पूछती हुई तथा उनके द्वारा प्रीति को पाती हुई उसने शय्या छोड़ी। अकुर्वती स्वहर्षस्य, सखीरपि विभागिनीः। साऽचलचलनन्यासै-हंसन्ती हंसवल्लभाः॥ ७०॥ अर्थ :- सखी को भी अपने हर्ष की विभागिनी न करती हुई पुनः चरणनिक्षेप से हंसियों पर हँसती हुई वह चल पड़ी। इच्छन्त्या विजनं याने, तस्या नामवतां प्रिये। नूपुरे रूपरेखाया, आरावैः स्तावकैः पदोः॥७१॥ अर्थ :- गमन में एकान्त चाहने वाली उस सुमङ्गला को, शब्दों से दोनों चरणों की रूपरेखा की स्तुति करने वाले दो नूपुर अभीष्ट नहीं हुए। ___ अकाले मञ्जुसिञ्जाना, मेखला मे खलायितम्। अधुनैव विधात्री कि-मिति सा दध्युषी क्षणम्॥७२॥ अर्थ :- उस सुमङ्गला ने असमय में मधुर शब्द करने वाली मेखला ने मेरे प्रति दुष्ट .. आचरण किया है, अब क्या करेगी? इस प्रकार ध्यान किया। मौनं भेजे करस्पर्श-संकेताद्वलयावलिः। विदुषीव तदाकूतं, तरसा तत्प्रकोष्ठयोः॥ ७३॥ (११०) [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-७] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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