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________________ अर्थ :- वेगपूर्वक सुमङ्गला के अभिप्राय को मानों जानती हुई उसके दोनों कलाइयों के कंगन समूह ने हाथ के स्पर्श के संकेत से मौन का सेवन किया। दुर्निमित्तात् व गन्तासी-त्यालापादालिजन्मनः। भीता मन्दपदन्यासं, साऽभ्यासं भर्तुरासदत्॥ ७४॥ अर्थ :- सखियों से उत्पन्न हुए दुनिमित्त से, 'कहाँ जाओगी', इस कथन से भयभीत हुई वह सुमङ्गला मन्द कदम रखती हुई पति के समीप पहुँची। रत्नप्रदीपरुचिसंयमितान्धकारे, मुक्तावचूलकमनीयवितानभाजि। सा तत्र दिव्यभवने भुवनाधिनाथं, निद्रानिरुद्धनयनद्वयमालुलोके ॥७५॥ अर्थ :- उस सुमङ्गला ने रत्नों के दीपक की कान्ति से जिसमें अन्धकार का निराकरण हो गया है, मोतियों के चोरीनुमा गुच्छों से चँदोवों से युक्त उस दिव्य भवन में भुवनों के स्वामी को जिनके नेत्रद्वय नींद से मुँदे हुए थे, देखा। पल्यङ्के विशदविकीर्णपुष्पतारे, व्योम्नीव प्रथिमगुणैकधाम्नि लीनः। उत्फुल्लेक्षणकुमुदां मुदा जिनेन्दु श्चक्राणः सपदि कुमुद्वतीमिवैताम्॥ अर्थ :- निर्मल फैले हुए चम्पक, कमलादि पुष्पों से मनोज्ञ (पक्ष में-विशद फैलाए गए फूलों के समान जिसमें तारागण हैं), विस्तारगुण के एक गृह पलङ्ग पर आकाश के समान सुप्त जिन चन्द्र ने जिसके नेत्र रूप कुमुद विकसित हो रहे थे ऐसी सुमङ्गला को तत्क्षण कुमुदिनी के समान किया। तोयार्द्राया इव परिचयान्मुक्तशोषं स्वतन्वाः, पौष्पं तल्पं प्रति परिमलेनोत्तमर्णीभवन्तम्। दृग्भ्यां व्रीडाव्यपगमऋजुस्फारिताभ्यां प्रसुप्तं, दृष्ट्वा नाथं लवणिमसुधाम्भोनिधिं पिप्रिये सा॥७७॥ अर्थ :- जल से भीगे वस्त्र के समान अपने शरीर के परिचय से जिसने मुरझाना छोड़ दिया हे ऐसे फूलों की शय्या को प्रति परिमल से गन्ध का दान करते हुए लज्जा के अभाव से सरल तथा विस्तारित दोनों नेत्रों से सौन्दर्य रूप अमृत के समुद्र नाथ को सोता हुआ देखकर प्रसन्न हुई। [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग७] (१११) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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