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जगभर्तुर्वाचा प्रथममथ जंभारिवचसा,
रसाधिक्यात्तृप्तिं समधिगमितामप्यनुपमाम्। स्वरायातैर्भक्ष्यैः शुचिभुवि निवेश्यासनवरे,
बलादालीपाली चटुघटनयाऽभोजयदिमाम्॥११-७०॥ इसके बाद प्रथम श्री ऋषभदेव प्रभु की वाणी से एवं इन्द्र की वाणी से अनुपम ऐसी रसाधिकता की तृप्ति को प्राप्त करने वाली उस सुमंगला को, सखियों ने जबरदस्ती से पवित्र भूमि पर बिछे हुए उत्तम आसन पर बिठाकर, मधुर वचनों से, रचना-पूर्वक देवलोक से आये हुए भोज्य पदार्थों से भोजन करवाने लगी।
इस ग्यारहवें सर्ग में कवि ने सूर्योदय वर्णन, इन्द्र का आगमन, सुमंगला की इन्द्रकृत प्रशंसा, इन्द्र के जाने के बाद सुमंगला का खेद, सखियों द्वारा सुमंगला को स्नान एवं भोजन करवाना इत्यादि प्रसंगों का कवि ने अपनी मौलिक कवित्व शक्ति से उपमा-रूपकादि अलंकारों द्वारा आलेख किया है।
कुमारसम्भव और जैन कुमारसम्भव काव्यों में समानता कवि श्री जयशेखरसूरि ने महाकवि कालिदास के 'कुमारसंभव' को लक्ष्य में रखकर अपने महाकाव्य का सर्जन किया है। इसीलिये तो उन्होंने 'जैन कुमारसंभव' ऐसा महाकाव्य का नाम दिया है। कदाचित् सरस्वती देवी ने प्रसन्न होकर महाकाव्य के आरंभ हेतु उन्हें जो दो पद दिये थे उनमें से एक पद कालिदास के महाकाव्य का प्रथम चरण है, इसलिये भी उन्होंने इस महाकाव्य के सर्जन करने हेतु सोचा हो अथवा उन्हें इस कथानुसार प्रेरणा मिली हो, जैसे कालिदास को भी 'कुमारसंभव' के प्रथम पद हेतु प्रेरणा मिली थी।*
श्री जयशेखरसूरि कवि कालिदास का अनुसरण करके प्रथम श्लोक की रचना करते हैं। कालिदास 'कुमारसंभव' का प्रारंभ इस प्रकार करते हैं :
अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा, हिमालयो नाम नगाधिराजः।
पूर्वापरौ तोयनिधि वगाह्य, स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः॥ १-१॥ (उत्तर दिशा में देवता स्वरूप हिमालय नाम से पर्वतों का राजा पूर्व एवं पश्चिम समुद्र में प्रवेश कर पृथ्वी के मानदंड की तरह विद्यमान है।)
श्री जयशेखरसूरि ‘जैन कुमारसंभव' का प्रारम्भ निम्न श्लोक से करते हैं :
कालिदास का विवाह विदुषी राजकुमारी के साथ हुआ था। राजकुमारी को पता चला कि उसके पति मूर्ख हैं इसलिये उसको बाहर निकाल दिया। कालिदास वहाँ से निकल कर भगवती के मंदिर में गये। वहाँ भगवती देवी को प्रसन्न कर सर्व शास्त्रों के पंडित हुए। फिर जब घर वापस आये तब उनकी पत्नी संस्कृत में पूछती है कि 'अस्ति कश्चित् वाग्विशेष:?' तब तीन शब्दों के इन वाक्यों के आधार पर कालिदास ने तीन महाकाव्यों की रचना की। अस्ति' से 'अस्त्युत्तरस्यां दिशि' से 'कुमारसंभव' की, 'कश्चित्' से 'कश्चित् कान्ता' से 'मेघदूत' की एवं वाग्' से 'वागर्थाविव' से 'रघुवंश' महाकाव्य की रचना की ऐसी किंवदंती कही जाती है।
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